|
उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘मैं इसमें कुछ भी दीनता नहीं मानता। आपने मेरा उसके साथ विवाह कर दिया है। मैं इस विवाह से कुछ प्रसन्न नहीं था। वह साधारण रूप-रेखा की लड़की है। आपने दहेज देखा है, लड़की नहीं।’’
शिवदत्त टकटकी बाँधे महादेव की ओर देख रहा था। महादेव ने आगे कहा, ‘‘इसके साथ ही भगवान् की कुदृष्टि हुई और हमारे घर में कोई सन्तान जीवित नहीं रही। अब मेरा जीवन क्लब में है और उसका पूजा-पाठ में। हमारा संबंध जो आपने बनाया है, अटूट है। मैं अब विवश हूँ।’’
‘‘विवश क्यों हो? तुम दूसरा विवाह कर सकते हो।’’
‘‘विवाह तो मैं, जब इच्छा होती है, कर लेता हूँ, परन्तु उर्मिला को कहाँ भेजूँ। वह मुझको छोड़ना नहीं चाहती।’’
‘‘कहो तो उसको धक्के मारकर घर से निकाल दूँ?’’
‘‘तो फिर क्या होगा? इस समय मैं सौ रुपये मासिक देता हूँ, फिर तीन सौ से कम खर्चा नहीं देना पड़ेगा।’’
शिवदत्त निरुत्तर हो गया। फिर क्रोध में कहने लगा, ‘‘परन्तु इसने मेरा अपमान किया है। इसने मुझे कहा है कि मद्य-सेवन से मैं ठीक ढंग से विचार नहीं कर सकता।’’
‘‘तो आप इस पर मान-हानि का दावा कर दीजिये।’’
इस पर तो विष्णु और उसकी माँ, दोनों हँस पड़े।
|
|||||










