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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


अब पुनः रमेशचन्द्र ने कह दिया, ‘‘मैंने एक योजनानुसार कार्य किया है। अभी तक तो यह सर्वथा सफल प्रतीत हुआ है। आगे के लिये भगवान् ही रक्षक है।’’

इस समय इन्द्रनारायण को अपने विवाह के अगली रात की बात, जो उसके माता-पिता के बीच हुई थी, स्मरण हो आयी। इस पर उसने कह दिया, ‘‘पिताजी! दुनिया में सब लोग आप जैसे समझदार और प्रबन्धकर्ता नहीं है। कौन श्वशुर अपनी पतोहू को शिक्षा देगा और फिर अपने लड़के को संयम रखने के लिये सफल प्रेरणा दे सकेगा?’’

‘‘देखो इन्द्रनारायण! यदि सास-ससुर को इस बात की शिक्षा नहीं है कि विवाह यौन-संबंध से बहुत-कुछ अधिक है तो यह प्रथा का दोष नहीं। यदि सास-ससुर को इतनी समझ नहीं कि उनकी बहू पढ़ जायेगी अथवा अन्य किसी प्रकार से योग्य हो जायेगी तो उनके परिवार को लाभ, सुख और शान्ति मिलेगी तो यह सब प्रथा का दोष नहीं है।

‘‘समाज की परिवर्तित परिस्थिति में हमको प्रथा के रूप में परिवर्तन कर देना चाहिये था, न कि प्रथा को ही हम समाप्त कर देना।’’

इन्द्रनारायण ने रायसाहब सिन्हा की संगत से बहुत ज्ञान प्राप्त किया था, परन्तु आज यह विवाह की व्याख्या तो सर्वथा विलक्षण थी। वह मन में विचार करता था कि युक्ति से तो सिन्हा साहब की योजना ठीक ही प्रतीत होती है।

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