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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘मुझको अपनी बुद्धि पर, विष्णु की बुद्धि से, अधिक विश्वास है।’

‘मेरी बुद्धि से भी?’ उन्होंने पूछा।

‘आपने बहू को देखा नहीं। इसलिए उसके विषय में आपका कुछ भी अनुभव नहीं। इस कारण आपकी बुद्धि की बात तो नहीं कह सकती; परन्तु आपके कथन को प्रमाण भी नहीं मान सकती।’

‘मैंने विष्णु से सब बात जानी है। और मैं समझता हूँ कि उसके झूठ बोलने में कोई कारण नहीं है।’

‘देखिये जी! मैंने भी विष्णु की बात को सुना है। मुझको ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह बिल्कुल झूठ बोल रहा है।’

‘परन्तु उसके झूठ बोलने में क्या कारण हो सकता है?’

‘इस क्यों का उत्तर जानने के लिये आगे-पीछे की बातों के विषय में विचार करने की आवश्यकता पड़ जायगी। इस समय यह विचार करने का अवसर नहीं। इस पर भी मैंने बहू को देखा है। उसका मुख देखने से ही मन के संशय निवृत्त हो जाते हैं।’

‘‘इस पर वह कहने लगे, ‘तुमको वहाँ नहीं जाना चाहिये।’

‘क्यों? मेरा प्रश्न था।’

‘बस, मैंने कह दिया है।’

‘मुझको भी इससे क्रोध चढ़ गया और मैंने कह दिया–‘मैं आपकी कैद में नहीं हूँ। मैं भी अपना व्यक्तित्व और बुद्धि रखती हूँ। जब तक वे मुझको किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाते, मैं उनसे सम्बन्ध नहीं तोड़ सकती।’

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