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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


फिर उसने उस स्थान की ओर इंगित करते हुए कहा, ‘‘हम तीनों इस स्थान को लावारिस देख, इधर-उधर से घास-फूस एकत्रित कर झोंपड़ा बना कर रहने लगे। उस समय मेरा पुत्र राधेलाल पाकिस्तान से आई हुई एक तेरह-चौदह वर्ष की लड़की ले आया था। लड़की के सभी परिवार वाले पाकिस्तान में मार डाले गये थे। एक दिन राधेलाल को शाहदरा स्टेशन पर वह परेशान-सी खड़ी दिखाई दी तो उसे वह अपने झोंपड़े में ले आया। मैंने उसे रख लिया। कुछ दिनों बाद उसका राधे से विवाह कर दिया और इस झोंपड़े के साथ ही एक अन्य झोंपड़ा बनाकर वे उसमें रहने लगे। बाप-बेटा मजदूरी करते थे। तीन-चार रुपये रोज लाते और हम औरतें ईंट-ईंट बटोरकर तथा खेत से मिट्टी खोदकर यह मकान बनाने लगे। कभी दस रुपये एकत्रित हो गये तो उससे नई ईंटें मोल ले आते। कभी कुछ ज्यादा रुपये बच जाते तो हम एक-दो दिन किसी राजगीर की सहायता ले लेते थे। दो वर्ष के कठोर परिश्रम से हमने वह कुछ निर्माण किया था, जो आपने आज से पांच वर्ष पूर्व देखा था।

‘‘बहु के गर्भ ठहर गया। मकान का काम बन्द हो गया। तब तक तीन कमरे और रसोई तैयार हो चुकी थी। सेहन की दीवार बन चुकी थी। इसी कमरे में, जिसमें इस कन्या का जन्म हुआ, मदनका भी जन्म हुआ था। मैं प्रतीक्षा कर रही थी कि मदन की मां कुछ स्वस्थ हो जाय तो फिर मकान का कार्य आरम्भ कर दूं। परन्तु मदन की मां कौशल्या ठीक नहीं हुई। धीरे-धीरे उसका रोग बढ़ता गया और जब मदन एक वर्ष का हुआ तो उसने अपनी इहलीला समाप्त कर दी। राधे उससे बहुत प्रेम करता था और उसकेदेहान्त के तेरह दिन बाद वह भी घर से लापता हो गया। आज सात वर्ष हो गये हैं। उसका अभी कहीं पता नहीं चला। राधे के पिता उसी तरह मजदूरी करते रहे। मकान में कुछ भी नई वस्तु नहीं बन पाई। धीरे-धीरे अन्न आदि महंगा होने पर और दो-ढाई रुपया जो वे कमा कर लाते थे, उससे बहुत कठिनाई से खाना-पीना चलता था। हम धैर्य से प्रतीक्षा कर रहे थे कि मदन बड़ा होगा और अपने बाबा का हाथ बटायेगा तो हमारे दिन बदलेंगे।

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