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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘हमारे घर का पता तो तुम्हारे पास था ही। तुम्हें सीधे हमारे घर आ जाना चाहिए था?’’

‘‘पिताजी ने डॉक्टर साहब को भी पत्र लिखा था, किन्तु उसका भी तो कोई उत्तर नहीं आया। इससे मैंने यही उचित समझा कि मैं किसी होटल में ही ठहरूं।’’

‘‘कोई बात नहीं। अब तुम हमारे घर पर चली चलो। वहां आराम मिलेगा।’’

‘‘आराम तो मुझे होटल में भी मिलता ही है। कल मध्याह्नोत्तर में डॉक्टर साहब के चिकित्सालय पहुंची थी। वहीं से पता चला था कि उनके साथ यह दुर्घटना हो गई है और आप सब लोग यहां आए हुए हैं। अब मैं किसी समय पुनः लक्ष्मी बहिन और डॉक्टर साहब से मिलने के लिए आऊंगी।’’

‘‘अभी मेरे साथ ही चलो न?’’

‘‘वहां जाने की अपेक्षा इनके पास रहना मैं अधिक आवश्यक मानती हूं। मैं रात के दस तक तो यहां रह ही सकती हूं।’’

‘‘खाना खाने तो जाओगी ही?’’

‘‘हां, इसके लिए दस बजे न जाकर पौन नौ बजे चली जाऊंगी।’’

‘‘ठीक है, उस समय तुम हमारे यहां आ जाना। मैं तुम्हारे लिए मोटर भेज दूंगी। लक्ष्मी आ जायेगी अथवा मैं ही आऊंगी। भोजन तुम वहीं करना।’’

महेश्वरी ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। इसका अभिप्राय नीला ने यह समझा कि उसने उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया है। नीला ने मदन के स्वास्थ समाचार पूछने आरम्भ कर दिए। इतने में मिस इलियट वहां आ गई। महेश्वरी को वहां देख मुस्कुराती हुई वह बोली, ‘‘तो तुम यहां भी आ गई हो?’’

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