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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘हमारी घर से भागने की योजना बनने लगी। मैंने अपने पिता के दस सहस्त्र डालर के नोट चुरा लिये और लड़के से निश्चित स्थान पर मिलने जा पहुंची। वह वहां खड़ा था। मैंने उससे कहा ‘चलो।’ उसने पूछा, ‘कुछ धन है साथ में?’ अपने हैंड बैग में रखा नोटों का बण्डल मैंने उसे दिखा दिया। वह मेरा हैण्ड बैग छीनकर भाग गया और मैं मुख देखती रह गई।

‘‘जब वह आंखों से ओझल हो गया तो मैं घर लौट आई। भाग्य की बात कि मेरा घर में अनुपस्थित रहना किसी को विदित नहीं हुआ और धन का गुम हो जाना किसी चोर के द्वारा चोरी करना समझा गया।

‘‘इस घटना ने तो मेरे मन में पुरुषों के प्रति ग्लानि भर दी। मैं अब उस प्रत्येक पुरुष को, जो मेरे सम्पर्क में आता है, इस प्रकार चिमटे से पकड़ती हूं जैसे वह कोई प्लेग का कीटाणु हो।

‘‘मेरी आयु इस समय 31 वर्ष की है और मेरा बैंक बैलेंस दस सहस्त्र डालर के लगभग हो गया है। मैं पिछले बारह वर्ष से, जब से मैं यहां आई हूं, अमेरिका के लड़के-लड़कियों की करतूतें देख रही हूं और इससे पुरुषों के प्रति मेरी घृणा बढ़ती जा रही है।

‘‘लड़कियां तो मुझे दया की पात्र दिखाई देती हैं।’’

महेश्वरी हंस पड़ी। उसने पूछा, ‘‘क्या इस स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध में तुम दोनों को सामान रूपेण दोषी नहीं समझतीं?’’

‘‘दोषी तो कोई भी नहीं। दोषी तो वे तत्वदर्शी हैं जिन्होंने सरलता और चरित्र की भावना ही मनुष्यमात्र में से निर्मूल कर दी है। ये तत्त्वदर्शी नेकी करना भी इसलिए उपयुक्त समझते हैं कि जिससे देश के कानून द्वारा वे पकड़े न जा सकें। नेकी में स्वतः वे कोई गुण नहीं मानते।

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