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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘अब अमेरिका का कार्यक्रम कब बनेगा?’’

‘‘पास पोर्ट आ चुके हैं। रुपये-पैसे का भी इन्तजाम हो चुका है। मैं चाहता हूं कि लड़की को जरा पिछली बातें भुलाकर नई बातों में लीन कर लो तो हवाई जहाज का टिकट ले आऊंगा। अब यह तुम बताओ कि इसको कब तक तैयार कर लोगी?’’

‘‘लड़की बहुत हठी हो गई है।’’

‘‘जरा प्रेम से बोलो। उसको गाने, रेडियो, हारमोनियम सुनाओ। उसको प्यार करोगी तो मैं समझता हूं कि पन्द्रह दिन में ही वह मदन को भूल जायगी। तब मैं दिल्ली जाकर हवाई जहाज में सीटें रिजर्व करवा आऊंगा।’’

खाना वहीं आ गया। दो चांदी के थालों में वहीं नौकरानी, जो लड़की को गोद में उठाकर ले गई थी, खाना ले आई। नीला ने पूछ लिया, ‘‘लड़की?’’

‘‘वह तो अभी सो रही है।’’ नौकरानी ने उत्तर दिया।

‘‘देखो, यह मदन नाम के एक लड़के साथ खेलती थी। अब सोकर उठने पर यह कुछ कहे तो उसको बताना कि मोटर मदन को लेने के लिए गई हुई है।’’

लक्ष्मी जिसकी कार में आई थी, उसका नाम बलवीर साहनी था। वह मेरठ के एक धनी परिवार का सदस्य था और एम. बी. बी. एस. उत्तीर्ण कर चिकित्सा-कार्य करता था। नीला उसकी बुआ की लड़की थी। वह कॉलेज में पढ़ती थी कि डॉक्टर साहब से प्रेम करने लगी। और फिर दोनें में सम्बन्ध बन गया। नीला ने बी. ए. की परीक्षा दी तो उसको गर्भ ठहरने का सन्देह हो गया। उसको अभी तीन-चार दिन ही हुए थे कि वह भागी-भागी डॉक्टर के पास आई और डॉक्टर के रोगियों से अवकाश मिलने की प्रतीक्षा करने लगी।

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