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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


उस पर फिर विचार करना उनके लिए असूझ था। उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी अभिलाषा थी कि अब कहीं निश्चित होकर दुनिया की सैर करें। यह समय अब निकट आता जाता था। ज्यों ही लड़का इंगलैंड से लौटा और छोटी लड़की की शादी हुई कि वह दुनिया के बंधन से मुक्त हो जाएंगे। पुष्पा फिर उनके सिर पर पड़कर उनके जीव के सबसे बड़े अरमान में बाधा न डालना चाहती थी। फिर उसके लिए दूसरा कौन स्थान है? कोई नहीं। तो क्या इस घर में रहकर जीवन पर्यंत अपमान सहते रहना पड़ेगा?

साधुकुमार आकर बैठ गया। पुष्पा ने चौंक कर पूछा–तुम बम्बई कब जा रहे हो?

साधु ने हिचकिचाते हुए कहा– जाना तो था कल लेकिन मेरी जाने की इच्छा नहीं होती। आने-जाने में सैकड़ों का खर्च है। घर में रुपये नहीं है, मैं किसी को सताना नहीं चाहता। बम्बई जाने की ऐसी जरूरत ही क्या है। जिस मुल्क में दस में नौ आदमी रोटियों को तरसते हों! वहां दस-बीस आदमियों का क्रिकेट के व्यसन में पड़े रहना मूर्खता है। मैं तो नहीं जाना चाहता।

पुष्पा ने उत्तेजित किया–तुम्हारे भाई साहब तो रुपए दे रहे हैं?

साधु ने मुसकराकर कहा–भाई साहब रुपए नहीं दे रेह हैं, मुझे दादा का गला दबाने को कह रहे हैं। मैं दादा को कष्ट नहीं देना चाहता। भाई साहब से कहना मत भाभी, तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ।

पुष्पा उसकी इस नम्र सरलता पर हंस पड़ी। बाईस साल का गर्वीला युवक जिसने सत्याग्रह-संग्राम में पढ़ना छोड़ दिया, दो बार जेल हो आया. जेलर के कटुवचन सुनकर उसकी छाती पर सवार हो गया उद्दंडता की सजा में तीन महीने काल कोठरी में रहा, वह अपने भाई से इतना डरता है, मानों वह हौवा हों। बोली –मैं तो कह दूंगी।

‘तुम नहीं कह सकतीं। इतनी निर्दय नहीं हो।’

पुष्पा प्रसन्न होकर बोली–कैसे जानते हो?

‘चेहरे से।’

‘झूठे हो।’

‘तो फिर इतना और कहे देता हूं कि आज भाई साहब ने तुम्हें भी कुछ कहा है।’

पुष्पा झेंपती हुई बोली–बिलकुल गलत। वह भला मुझे क्या कहते?

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