उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
क्रोध को दबाते हुए बोले–आपको मुझे समझाने के लिए यहां आने की तकलीफ उठाने की कोई जरूरत न थी। उन लड़कों ही को समझाना चाहिए था।
‘उन्हें तो मैं समझा चुका।’
‘तो जाकर शांत बैठिए। मैं अपने हकों के लिए लड़ना जानता हूं। अगर उन लोगों के दिमाग में कानून की गर्मी का असर हो गया है तो उसकी दवा मेरे पास है।’
अब देवकुमार की साहित्यिक नम्रता भी अविचलित न रह सकी। जैसे लड़ाई का पैगाम स्वीकार करते हुए बोले–मगर आपको मालूम होना चाहिए वह मिल्किथत आज दो लाख से कम की नहीं है।
‘दो लाख नहीं, दस लाख की हो, आपसे सरोकार नहीं।’
‘आपने मुझे बीस हजार ही तो दिए थे।’
‘आपको इतना कानून तो मालूम ही होगा, हालांकि कभी आप अदालत में नहीं गए, कि जो चीज बिक जाती है वह कानूनन किसी दाम पर भी वापस नहीं की जाती। अगर इस नए कायदे को मान लिया जाए तो इस शहर में महाजन न नजर आए।’
कुछ देर तक सवाल-जवाब होता रहा और लड़नेवाले कुत्तों की तरह दोनों भले आदमी गुर्राते, दांत निकालते, खौंखियाते रहे। आखिर दोनों लड़ ही गये।
गिरधर दास ने प्रचंड होकर कहा–मुझे भी न मालूम था कि आपके स्वार्थ का पेट इतना गहरा है।
‘आप अपना सर्वनाश करने जा रहे हैं।’
‘कुछ परवाह नहीं।’
देवकुमार वहां से चले तो माघ की उस अंधेरी रात की निर्दयी ठंड में भी उन्हें पसीना आ रहा था। विजय का ऐसा गर्व अपने जीवन में उन्हें कभी न हुआ था। उन्होंने तर्क में तो बहुतों पर विजयी पायी थी। यह विजय थी जीवन में एक नयी प्रेरणा, एक नयी शक्ति का उदय।
उसी रात को सिन्हा और संतकुमार ने एक बार देवकुमार पर जोर डालने का निश्चय किया। दोनों आकर खड़े ही थे कि देवकुमार ने प्रोत्साहन भरे हुए भाव से कहा–तुम लोगों ने अभी तक मुकदमा दायर नहीं किया। नाहक क्यों देर कर रहे हो?
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