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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


सहसा कमलाप्रसाद आंखें मलते हुए आकर खड़े हो गए और बोले–अभी आप सोए नहीं? गरमी लगती हो, तो पंखा लाकर रख दूं। रात तो ज्यादा हो गई।

बदरी०–नहीं; गरमी नहीं है। प्रेमा से कुछ बातें करने लगा था। तुमसे भी कुछ सलाह चाहता था, तो तुम आप ही आ गए। मैं यह सोच रहा हूं कि पूर्णा यहीं आकर रहे, तो क्या हरज है?

कमलाप्रसाद ने आंखें फाड़कर कहा–यहां! अम्मां कभी न राजी होंगी।

बदरी०–अम्मांजी की बात छोड़ो, तुम्हें तो कोई आपत्ति नहीं है? मैं तुमसे पूछना चाहता हूं।

कमलाप्रसाद ने दृढ़ता से कहा–मैं तो कभी इसकी सलाह न दूंगा। दुनिया में सभी तरह के आदमी हैं, न जाने क्या समझें। दूर तक सोचिए।

बदरी०–उसके पालन-पोषण का तो कुछ प्रबन्ध करना ही होगा।

कमला०–हम क्या कर सकते हैं?

बदरी०–तो और कौन करेगा?

कमला०–शहर में हमीं तो नहीं रहते। और भी बहुत से धनी लोग हैं अपनी हैसियत के मुताबिक हम भी कुछ सहायता कर देंगे।

बदरीप्रसाद ने कटाक्ष-भाव से कहा–तो चन्दा खोल दिया जाए, क्यों? अच्छी बात है, जाओ घूम-घूमकर चन्दा जमा करो।

कमला०–मैं क्यों चन्दा जमा करने लगा।

बदरी०–तब कौन करेगा?

कमलाप्रसाद इसका कुछ जवाब न दे सके। कुछ देर के बाद बोले–आखिर आपने क्या निश्चय किया है?

बदरी०–मैं क्या निश्चय करूंगा? मेरे निश्चय का अब मूल्य ही क्या? निश्चय तो वही है, जो तुम करो। मेरा क्या ठिकाना? आज मैं कुछ कर जाऊं, कल मेरी आंख बन्द होते ही तुम उलट-पुलट दो, व्यर्थ में बदनामी हो।

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