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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


कमला–इतनी समझ को तुम साधारण बात समझ रही हो; पर यह साधारण बात नहीं। तुमको यह सुनकर आश्चर्य तो होगा; पर अपनी तारीफ सुनकर हम इतने मतवाले हो जाते हैं कि फिर हममें विवेक की शक्ति ही लुप्त हो जाती है। बड़े-से-बड़ा महात्मा भी अपनी प्रशंसा सुनकर फूल उठता है। हां, प्रशंसा करने वाले शब्दों में भक्ति का भाव रहना आवश्यक है। यदि ऐसा न होता, तो कवियों को झूठी तारीफों के पुल बांधने के लिए हमारे राजे-महराजे पुरस्कार क्यों देते। बताओ? राजा साहब तमन्चे की आवाज सुनकर चौंक पड़ते हैं, कानों में उंगली डाल लेते हैं और घर में भागते हैं; पर दरबार में कवि उन्हें वीरता में अर्जुन और द्रोणाचार्य से दो हाथ और ऊंचा उठा देता है, तो राजा साहब की मूंछें खिल उठती हैं, उन्हें एक क्षण के लिए भी यह ख्याल नहीं आता कि यह मेरी हंसी उड़ाई जा रही है। ऐसी तारीफों में हम शब्दों को नहीं, उनके अन्दर छिपे हुए भावों को ही देखते हैं। सुमित्रा रंग-रूप में अपने बराबर किसी को नहीं समझती। न जाने उसे यह खब्त कैसे हो गया। यह कहते बहुत दुःख होता है पूर्णा; पर इस स्त्री के कारण मेरी जिन्दगी खराब हो गई। मुझे मालूम ही न हुआ कि प्रेम किसे कहते हैं। मैं संसार में सबसे अभागा प्राणी हूं। और क्या कहूं। पूर्व जन्म के पापों का प्रायश्चित कर रहा हूं। सुमित्रा से बोलने को जी नहीं चाहता; पर मुंह से कुछ नहीं कहता कि कहीं घर में कुहराम न मच जाए लोग समझते हैं, मैं आवारा हूं, सिनेमा और थियेटर में प्रमोद के लिए जाता हूं, लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूं पूर्णा, मैं सिनेमा में केवल अपनी हार्दिक वेदनाओं को भुलाने के लिए जाता हूं, अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को और कैसे शान्त करूं, दिल की आग को कैसे बुझाऊं। कभी-कभी जी में आता है, संन्यासी हो जाऊं और कदाचित् एक दिन यही करना पड़ेगा। तुम समझती होगी, यह महाशय कहां का पचड़ा ले बैठे। क्षमा करना, न जाने आज क्यों तुमसे ये बातें करने लगा। आज तक मैंने इन भावों को किसी से प्रगट नहीं किया था। व्यक्ति हृदय ही से सहानुभूति की आशा होती है, बस यही समझ लो। तो मैं जाकर आदमियों को भेजे देता हूं, तुम्हारा असबाब उठा ले जाएंगे।

पूर्णा को अब क्या आपत्ति हो सकती थी। उसका जी अब भी इस घर को छोड़ने को न चाहता था; पर वह इस अनुरोध को टाल न सकी। उसे यह भय भी हुआ कि कहीं यह मेरे इन्कार से और भी दुःखी न हो जाएं। आश्रय विहीन अबला के लिए इस समय तिनके का सहारा ही बहुत था, तो वह नौका की कैसे अवहेलना करती; पर वह क्या जानती थी कि यह उसे उबारने वाली नौका नहीं वरन् एक विचित्र जल-जन्तु है, जो उसकी आत्मा को निगल जाएगा?

पूर्णा को अपने घर से निकलते समय बड़ा दुःख होने लगा। जीवन के तीन वर्ष इसी घर में काटे थे। यहीं सौभाग्य के सुख देखे, यहीं वैधव्य के दुःख भी देखे। अब उसे छोड़ते हुए हृदय फट जाता था। जिस समय चारों कहार उसका असबाब उठाने के लिए घर आए, वह सहसा रो पड़ी। उसके मन में कुछ वैसे ही भाव जाग्रत हो गए, जैसे शव को उठाते समय शोकातुर प्राणियों के मन में आ जाते हैं। यह जानते हुए भी कि लाश घर में नहीं रह सकती, जितनी जल्द उसकी दाह-क्रिया हो जाए उतना ही अच्छा। वे एक क्षण के लिए मोह के आवेश में आकर पांव से चमिट जाते हैं, और शोक से विह्वल होकर करुण स्वर में रुदन करने लगते हैं, वह आत्म-प्रवञ्चना, जिसमें अब तक उन्होंने अपने को डाल रखा था कि कदाचित् अब भी जीवन के कुछ चिह्न प्रकट हो जाएं, एक परदे के समान आंखों के सामने से हट जाती है, और मोह का अन्तिम बन्धन टूट जाता है, उसी भांति पूर्णा भी घर के एक कोने में दीवार से मुंह छिपाकर रोने लगी। अपने प्राणेश की स्मृति का यह आधार भी शोक के अपार सागर में विलीन हो रहा था। उस घर का एक-एक कोना; उसके लिए मधुर-स्मृतियों से रंजित था, सौभाग्य-सूर्य के अस्त हो जाने पर भी यहां उसकी कुछ प्रतिध्वनि आती रहती थी। घर में विचरते हुए उसे अपने सौभाग्य का विषादमय गर्व होता रहता था। आज सौभाग्य-सूर्य का वह अन्तिम प्रकाश मिटा जा रहा था, सौभाग्य-संगीत की प्रतिध्वनि एक अनन्त शून्य में डूबी जाती थी, वह विषादमय गर्व हृदय को चीरकर निकला जाता था!

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