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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


न पुस्तकों से प्रेम, न संगीत से प्रेम, न विनोद से प्रेम, प्रेम है पैसे से। मुझे तो विश्वास नहीं कि इन्हं। सिनेमा में आनन्द आता हो, वहां भी कोई-न-कोई स्वार्थ है। लेन-देन, सवाए-ड्योढ़े घाटे-नफे में इनके प्राण बसते हैं और मुझे इन बातों से घृणा है। कमरे में आते हैं तो पहली बात जो उनके मुंह से निकलती है, वह यह कि अभी तक बत्ती क्यों नहीं बुझाई। वह देखो, सवारी आ गई। अब घण्टे-दो-घण्टे किफायत का उपदेश सुनना पड़ेगा। यों मैं धन को तुच्छ नहीं समझती। संचय करना अच्छी बात है, पर यह क्या कि आदमी धन का दास हो जाए। केवल इन्हें चिढ़ाने के लिए कुछ-न-कुछ फिजूल खर्चा किया करती हूं। मजा तो यह है कि इन्हें अपने ही पैसों की अखर नहीं होती, मैं अपने पास से भी कुछ खर्चा कर सकती। पिताजी महीने में ४०-५० रु० भेज देते हैं, इस घर में तो कानी कौड़ी भी न मिले। मेरी जो इच्छा होती है, करती हूं। वह भी आपसे नहीं देखा जाता। इस पर भी कई बार तकरार हो चुकी है। सोने लगना तो बत्ती बुझा देना बहन। जाती हूं।

सुमित्रा चली गई। पूर्णा ने बत्ती बुझा दी और लेटी; पर नींद कहां? आज ही उसने इस घर में कदम रखा था और आज ही उसे अपनी जल्दबाजी पर खेद हो रहा था। यह निश्चय था कि वह बहुत दिन यहां न रह सकेगी।

लाला बदरीप्रसाद के लिए अमृतराय से अब कोई संपर्क रखना असंभव था, विवाह तो दूसरी ही बात थी। समाज में इतने घोर अनाचार का पक्ष लेकर अमृतराय ने अपने को उनकी नजरों से गिरा दिया। उनसे अब कोई सम्बन्ध करना बद्रीप्रसाद के लिए कलंक की बात थी। अमृतराय के बाद दाननाथ से उत्तम वर उन्हें कोई और न दिखाई दिया। अधिक खोज-पूछ करने का समय भी न था। अमृतराय के इन्तजार में पहले ही बहुत विलम्ब हो चुका था, बिरादरी में लोग उंगलियां उठाने लगे थे। नए सम्बन्ध की खोज में विवाह के एक अनिश्चित समय तक टल जाने का भय था। इसलिए मन को इधर-उधर न दौड़ाकर उन्होंने दाननाथ ही से बात पक्की करने का निश्चय कर लिया! देवकी ने भी कोई आपत्ति न की। प्रेमा ने इस विषय में उदासीनता प्रकट की। अब उसके लिए सभी पुरुष समान थे, वह किसी के साथ जीवन का निर्वाह कर सकती थी। उसकी चलती तो वह अविवाहित ही रहना पसन्द करती! पर जवान लड़की बैठी रहे, यह कुल के लिए घोर अपमान की बात थी। इस विषय में किसी प्रकार का दुराग्रह करके वह माता-पिता का दिल न दुःखाना चाहती थी। जिस दिन अमृतराय ने वह भीषण प्रतिज्ञा की, उसी दिन प्रेमा ने समझ लिया कि अब जीवन में मेरे लिए सुख लोप हो गया; पर अविवाहिता रहकर अपनी हंसी कराने की अपेक्षा किसी की होकर रहना कहीं सुलभ था। आज से दो-तीन साल पहले दाननाथ ही से उसकी विवाह की बातचीत हो रही थी, यह वह जानती ही थी बीच में परिस्थिति न बदल गई होती, तो आज वह दाननाथ के घर होती। दाननाथ को वह कई बार देख चुकी थी। वह रसिक हैं, सज्जन हैं, विद्वान हैं, यह उसे मालूम था। उनकी सच्चरित्रता पर भी किसी को सन्देह न था, देखने में भी बहुत ही सजीले-गठीले आदमी थे। ब्रह्मचर्य की कान्ति मुख पर झलकती थी। उससे उन्हें प्रेम था, यह भी उससे छिपा न था। आंखें हृदय के भेद खोल ही देती हैं। अमृतराय ने हंसी-हंसी में प्रेमा से इसकी चर्चा भी कर दी थी। यह सब होते हुए प्रेमा को इनका जो कुछ ख्याल था, वह इतना ही था कि वह अमृतराय के गहरे दोस्त हैं। उनमें बड़ी घनिष्ठता है। वह धनी नहीं थे; पर यह कोई ऐब न था, क्योंकि प्रेमा विलासिनी न थी। क्यों उसका मन अमृतराय की ओर बढ़ता था और दाननाथ की और से खिंचता था, इसका कोई कारण वह स्पष्ट न कर सकती थी; पर इस परिस्थिति में उसके लिए और कोई उपाए नहीं था। फिर अब तक उसने दाननाथ को कभी इस दृष्टि से न देखा था। उसने मन में एक संकल्प कर लिया था। अब हृदय में वह स्थान खाली हो जाने के बाद दानानाथ को वहां प्रतिष्ठित करने में उसे क्षोभ नहीं हुआ। उसने मन को टटोलकर देखा, तो उसे ऐसा मालूम हुआ कि वह दाननाथ से प्रेम कर सकती है। बदरीप्रसाद विवाह के विषय में उसकी अनुमति आवश्यक समझते थे। कितनी ही बातों में वह बहुत ही उदार थे। प्रेमा की अनुमति पाते ही उन्होंने दाननाथ के पास पैगाम भेज दिया।

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