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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


यह संकेत किसकी ओर था, वह दाननाथ से छिपा न रह सका, जब अमृतराय की पहली पत्नी जीवित थीं, उसी समय दाननाथ से प्रेमा के विवाह की बातचीत हुई थी। जब प्रेमा की बहन का देहान्त हो गया तो उसके पिता लाला बदरीप्रसाद ने दाननाथ की ओर से मुंह फेर लिया। दाननाथ विद्या, धन और प्रतिष्ठा किसी बात में भी अमृतराय की बराबरी न कर सकते थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि प्रेमा भी अमृतराय की ओर झुकी हुई मालूम होती थी। दाननाथ इतने निराश हुए कि आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय कर लिया। दोनों मित्रों में किसी प्रकार का द्वेष-भाव न आया। दाननाथ यों तो देखने में तो नित्य प्रसन्नचित्त रहते थे; लेकिन वास्तव में संसार से विरक्त से हो गए थे। उनका जीवन ही आनन्द-विहीन हो गया था। अमृतराय को अपने प्रिय मित्र की आन्तरिक व्यथा देखकर दुःख होता था। वह अपने चित्त को इसकी परीक्षा के लिए महीनों से तैयार कर रहे थे। किन्तु प्रेमा-जैसी अनुपम सुन्दरी का त्याग करना आसान न था। ऐसी दशा में अमृतराय की ये बातें सुनकर दाननाथ का हृदय आशा से पुलकित हो उठा। जिस आशा को उन्होंने हृदय को चीर कर निकाल डाला था। जिसकी इस जीवन में वह कल्पना भी न कर सकते थे जिसकी अन्तिम ज्योति बहुत दिन हुए शान्त हो चुकी थी, वही आशा आज उनके मर्मस्थल को चंचल करने लगी। इसके साथ ही अमृतराय के देवोपम त्याग ने उन्हें वशीभूत कर लिया। वह गद्गद् कंठ से बोले–क्या इसीलिए तुमने आज प्रतिज्ञा कर डाली? अगर वह मित्र तुम्हारी इस उदारता से लाभ उठाए, तो मैं कहूंगा वह मित्र नहीं, शत्रु है। और यही क्या निश्चय है इस दशा में प्रेमा का विवाह तुम्हारे उसी मित्र से हो?

अमृतराय ने चिन्तित होकर कहा–हां, यह शंका अवश्य हो सकती है; लेकिन मुझे आशा है कि मेरे मित्र इस अवसर को हाथ से न जाने देंगे। मैं उन्हें ऐसा मन्दोत्साह नहीं समझता।

दाननाथ ने तिरस्कार का भाव धारण करके कहा–तुम उसे इतना नीच समझना चाहते हो, समझ लो, लेकिन मैं कहे देता हूं कि यदि मैं उस मित्र का ठीक अनुमान कर सका हूं, तो वह अपने बदले तुम्हें निराशा की भेंट न होने देगा।

यह कहते हुए दाननाथ बाहर निकल आए और अमृतराय द्वार पर खड़े, उन्हें रोकने की इच्छा होने पर भी बुला न सके।

इधर दोनों मित्रों में बातें हो रही थी, उधर लाला बदरीप्रसाद के घर में मातम-सा छाया हुआ था। लाला बदरीप्रसाद, उनकी स्त्री देवकी और प्रेमा, तीनों बैठे निश्चल नेत्रों से भूमि की ओर ताक रहे थे, मानो जंगल में राह भूल गये हों। बड़ी देर के बाद देवकी बोली–तुम जरा अमृतराय के पास चले जाते।

बदरीप्रसाद ने आपप्ति के भाव से कहा–जाकर क्या करूं?

देवकी–जाकर समझाओ-बुझाओ और क्या करोगे। उनसे कहो, भैया, हमारा डोंगा क्यों मंझधार में डुबाए देते हो। तुम घर के लड़के हो। तुमसे हमें ऐसी आशा न थी। देखो कहते क्या हैं।

बदरी०–मैं उनके पास अब नहीं जा सकता।

देवकी०–आखिर क्यों? कोई हरज है?

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