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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

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परंतु महारानी की मृत्यु के बाद ज्यों ही धन-सम्पत्ति ने उन पर वार किया, बस दार्शनिक तर्कों की यह ढाल चूर-चूर हो गयी। आत्मनिदर्शन की शक्ति नष्ट हो गयी। वे मित्र बन गये जो शत्रु सरीखे थे और जो सच्चे हितैषी थे, वे विस्मृत हो गये। साम्यवाद के मनोगत विचारों में घोर परिवर्तन आरम्भ हो गया। हृदय में सहिष्णुता का उद्भव हुआ। त्याग ने भोग की ओर सिर झुका दिया, मर्यादा की बेड़ी गले में पड़ी। वे अधिकारी, जिन्हें देखकर उनके तेवर बदल जाते थे, अब उनके सलाहकार बन गये। दीनता और दरिद्रता को, जिनसे उन्हे सच्ची सहानुभूति थी, देखकर अब वह आँखें मीच लेते थे।

इसमें सन्देह नहीं कि कुँवर साहब अब भी साम्यवाद के भक्त थे, किन्तु उन विचारों के प्रकट करने में वह पहले की स्वतंत्रता न थी। विचार अब व्यवहार से डरता था। उन्हें कथन को कार्य रूप में परिणत करने का अवसर प्राप्त न था, पर अब कार्य-क्षेत्र कठिनाइयों से घिरा हुआ जान पड़ता था। बेगार के वह जानी दुश्मन थे, परन्तु अब बेगार को बंद करना दुष्कर प्रतीत होता था। स्वच्छता और स्वास्थ्यरक्षा के वह भक्त थे, किन्तु अब धन-व्यय का ध्यान करके भी उन्हें ग्रमवासियों की ही ओर से विरोध की शंका होती थी। असामियों से पोत उगाहने में कठोर बर्ताव को वह पाप समझते थे, मगर अब कठोरता के बिना काम न चलता जान पड़ता था। सारांश यह कि कितने ही सिद्धांत, जिन पर उनकी श्रद्धा थी अब असंगत प्रतीत होते थे।

परन्तु आज जो दु:खजनक दृश्य बैंक के अहाते में नजर आये उन्होंने उनके दयाभाव को जाग्रत कर दिया। उनकी उस मनुष्य की-सी दशा हो गयी जो नौका में बैठा सुरम्य तट की शोभा का आनन्द उठाता हुआ किसी श्मशान के सामने आ जाय, चिंता पर लाशें जलती देखे, शोक-संतप्तों के करुण-क्रंदन को सुने और नाव से उतरकर उनके दु:ख में सम्मिलित हो जाय।

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