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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

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आज से सात वर्ष पूर्व जब बरहल के महाराज ठीक युवावस्था में घोड़े से गिर कर मर गये थे, और विरासत का प्रश्न उठा तो महाराज के कोई सन्तान न होने के कारण, वंशक्रम मिलाने से उनके सगे चचेरे भाई ठाकुर रामसिंह को विरासत का हक पहुँचता था। उन्होंने दावा किया, लेकिन न्यायालयों ने रानी को ही हकदार ठहराया। ठाकुर साहब ने अपील की, प्रिवी कौंसिल तक गये, परन्तु सफलता न मिली। मुकदमेबाजी में लाखों रुपये नष्ट हुए, अपने पास की मिलकियत भी हाथ से जाती रही, किन्तु हार कर भी वह चैन से नहीं बैठे। सदैव विधवा रानी को छेड़ते रहते। कभी असामियों को भड़काते, कभी हाकिमों से रानी की बुराई करते कभी उन्हें जाली मुकदमों में फँसाने का उपाय करते, परन्तु रानी बड़े जीवट की स्त्री थीं। वह ठाकुर साहब के प्रत्येक आघात का मुँहतोड़ उत्तर देतीं। हाँ, इस खींचातानी में उन्हें बड़ी-बड़ी रकमें व्यय करनी पड़तीं। असामियों से रुपये वसूल न होते इसलिए उन्हें बारम्बार ऋण लेना पड़ता था, परन्तु कानून के अनुसार उन्हें ऋण लेने का अधिकार नहीं था। इसलिए उन्हें या तो इस व्यवस्था को छिपाना पड़ता था, या सूद की गहरी दर स्वीकार करनी पड़ती थी।

कुँवर जगदीशसिंह का लड़कपन तो लाड़-प्यार से बीता था; परन्तु जब ठाकुर रामसिंह मुकदमेबाजियों से बहुत तंग आ गये और यह सन्देह होने लगा कि कहीं रानी की चालों से कुँवर साहब का जीवन संकट में न पड़ जाय, तो उन्होंने विवश हो कुँवर साहब को देहरादून भेज दिया। कुँवर साहब वहाँ दो वर्ष तक तो आनन्द से रहे, किन्तु ज्यों ही कॉलेज की प्रथम श्रेणी में पहुँचे कि ठाकुर साहब परलोकवासी हो गये। कुँवर साहब को शिक्षा-क्रम छोड़ना पड़ा। बरहल चले आये, सिर पर कुटुम्ब-पालन और रानी से पुरानी शत्रुता के निभाने का बोझ आ पड़ा। उस समय से महारानी के मृत्युकाल तक उनकी दशा बहुत अनवरत रही। ऋण या स्त्रियों के गहनों के सिवा और कोई आधार न था। उस पर कुल-मर्यादा-रक्षा की चिन्ता भी थी। यही तीन वर्ष तक उनके लिए कठिन परीक्षा का समय था। आये दिन साहूकारों से काम पड़ता था। उनके निर्दय बाणों से कलेजा छिद गया था, हाकिमों के कठोर व्यवहार और अत्याचार भी सहने पड़ते, परन्तु सबसे हृदय-विदारक अपने आत्मीयजनों का बर्ताव था, जो सामने बात न करके बगली चोटें करते थे, मित्रता और ऐक्य की आड़ में कपट हाथ चलाते थे। इन कठोर यातनाओं ने कुँवर साहब को अधिकार, स्वेच्छा और धन-सम्पत्ति का जानी दुश्मन बना दिया था। वह बड़े भावुक पुरुष थे। सम्बन्धियों की अकृपा और देशबंधुओं की दुर्नीति उनके हृदय पर काला चिन्ह बनाती जाती थी। साहित्य-प्रेम ने उन्हें मानवप्रकृति का तत्वान्वेषी बना दिया था, और जहाँ यह ज्ञान उन्हें प्रतिदिन सभ्यता से दूर लिये जाता था, वहाँ उनके चित्त में जनसत्ता और साम्यवाद के विचार पुष्ट करता जाता था। उन पर प्रकट हो गया था यदि सद्व्यवहार जीवित है तो वह झोपड़ों और गरीबों में है। उस कठिन समय में जब चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था, उन्हें कभी-कभी सच्ची सहानुभूति का प्रकाश यहीं दृष्टिगोचर हो जाता था। धन-सम्पत्ति को वह श्रेष्ठ प्रसाद नहीं, ईश्वरीय प्रकोप समझते थे जो मनुष्य के हृदय से दया और प्रेम के भावों को मिटा देता है। वह मेघ है, जो चित्त के प्रकाशित तारों पर छा जाता है।

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