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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

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मुंशी प्रेमचन्द की चार प्रसिद्ध कहानियाँ


कुँवर–दरिद्रपुर।

लालाजी–तो हम भी जायेंगे।

कुँवर–तुम्हें भी ले चलेंगे; परन्तु इस बारात में पैदल चलनेवालों का सम्मान सवारों से अधिक होगा।

लालाजी–तो हम भी पैदल चलेंगे।

कुँवर–वहाँ परिश्रमी मनुष्यों की प्रशंसा होती है।

लाला जी–तो हम सबसे ज्यादा परिश्रम करेंगे।

कुँवर साहब के दोनों भाई पाँच-पाँच हजार रुपये का गुजारा लेकर अलग हो गये। कुँवर साहब अपने और परिवार के लिए कठिनाई से एक हजार सालाना का प्रबन्ध कर सके, परन्तु यह आमदनी एक रईस के लिए किसी तरह पर्याप्त नहीं थी। अतिथि-अभ्यागत प्रतिदिन टिके ही रहते हैं। उनका भी सत्कार करना पड़ता है। बड़ी कठिनाई से निर्वाह होता था। इधर एक वर्ष से शिवदास के कुटुम्ब का भार भी सिर पर आ पड़ा, परन्तु कुँवर साहब कभी अपने निश्चय पर शोक नहीं करते। उन्हें कभी किसी ने चिंतित नहीं देखा। उनका मुख-मंडल धैर्य और सच्चे अभिमान से सदैव प्रकाशित रहता है। साहित्य-प्रेम पहले से था। अब बागवानी से प्रेम हो गया है। अपने बाग में प्रात:काल से शाम तक पौधों की देख-रेख किया करते हैं और लाला साहब तो पक्के कृषक होते दिखाई देते हैं। अभी नौ-दस वर्ष से अधिक अवस्था नहीं है, लेकिन अँधेरे मुँह खेतों में पहुँच जाते हैं। खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती।

उनका घोड़ा मौजूद है। परन्तु महीनों उस पर नहीं चढ़ते। उनकी यह धुन देखकर कुँवर साहब प्रसन्न रहते हैं और कहा करते हैं, मैं रियासत के भविष्य की ओर से निश्चिन्त हूँ। लाला साहब कभी इस पाठ को न भूलेंगे। घर में सम्पत्ति होती, तो सुख-भोग, आखटे और दुराचार के सिवा और क्या सूझता! सम्पत्ति बेचकर हमने परिश्रम और संतोष खरीदा, और यह सौदा बुरा नहीं। सावित्री इतनी सन्तोषी नहीं। वह कुँवर साहब के रोकने पर भी असामियों से छोटी-माटी भेंट ले लिया करती है और कुल-प्रथा नहीं छोड़ना चाहती।

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