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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

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जब कुर्सियों पर बैठ गये, तो रानी के प्राइवेट सेक्रेटरी ने व्यवहार की बातचीत आरम्भ की। बरहल की पुरानी गाथा सुनाने के बाद उसने उन उन्नतियों का वर्णन किया, जो रानी साहिबा के प्रयत्न से हुई थीं। इस समय नहरों की एक शाखा निकालने के लिए दस लाख रुपयों की आवश्यकता थी और यद्यपि रानी साहिबा किसी अंग्रेजी बैंक से रुपये ले सकती थीं।, परन्तु उन्होंने एक हिन्दुस्तानी बैंक से ही काम करना अच्छा समझा। अब यह निर्णय केवल नेशनल बैंक के हाथ में था कि वह इस अवसर से लाभ उठाना चाहता है या नहीं?

बंगाली बाबू–हम रुपया दे सकता है, मगर कागज-पत्तर देखे बिना कुछ नहीं कर सकता।

सेक्रेटरी–आप कोई जमानत चाहते हैं?

साईंदास उदारता से बोले–महाशय, जमानत के लिए आपकी जबान ही काफी है।

बंगाली बाबू–आपके पास रियासत का कोई हिसाब-किताब है?

लाला साईंदास को अपने हेड-क्लर्क का यह दुनियादारी का बर्ताव अच्छा न लगता था। वह इस समय उदारता के नशे में चूर थे। महारानी की सूरत ही पक्की जमानत थी; उनके सामने कागज और हिसाब का वर्णन करना बनियापन जान पड़ता था, जिससे अविश्वास की गंध आती है।

महिलाओं के सामने हम शील और संकोच के पुतले बन जाते हैं। बंगाली बाबू की ओर क्रूर-कठोर दृष्टि से देखकर साईंदास बोले कागजों की जाँच कोई आवश्यक बात नहीं है, केवल हमको विश्वास होना चाहिए।

बंगाली बाबू–डाइरेक्टर लोग कभी न मानेंगे।

साईंदास–हमको इसकी कोई परवाह नहीं। हम अपनी जिम्मेदारी पर रुपया दे सकते हैं।

रानी ने साईंदास की ओर कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से देखा। उनके होठों पर हल्की मुस्कराहट दिखलायी पड़ी।

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