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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

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कुँवर साहब ने पूछा–यहाँ आप लोग क्यों जमा हैं? कोई तमाशा होने वाला है क्या?

एक महाशय, जो देखने में कोई बिगड़े रईस मालूम होते थे, बोले–जी हाँ, बड़ा मजेदार तमाशा है।

कुँवर–किसका तमाशा है?

‘तकदीर का।’

कुँवर महाशय को यह उत्तर पाकर आश्चर्य तो हुआ, परंतु सुनते आये थे कि लखनऊ वाले बात-बात में बात निकाला करते हैं। उसी ढंग से उत्तर देना आवश्यक हुआ। बोले–तकदीर का खेल देखने के लिए यहाँ आना तो आवश्यक नहीं।

लखनवी महाशय ने कहा–आपका कहना सच है लेकिन दूसरी जगह यह मजा कहाँ? यहाँ सुबह से शाम तक के बीच भाग्य ने कितनों को धनी से निर्धन और निर्धन से भिखारी बना दिया। सबेरे जो लोग महलों में बैठे थे, इस समय उन्हें वृक्ष की छाया भी नसीब नहीं। जिनके द्वार पर सदाव्रत खुले थे, वहाँ इस समय रोटियों के लाले पड़े हैं। अभी एक सप्ताह पहले जो लोग कालगति, भाग्य के खेल और समय के फेर को कवियों की उपमा समझते थे, इस समय उनकी आह और करुण क्रंदन वियोगियों को भी लज्जित करता है, ऐसे तमाशे और कहाँ देखने में आयेंगें।

कुँवर–भगवन्, आपने तो पहेली को और भी गूढ़ कर दिया। मैं देहाती हूँ, मुझसे साधारण तौर से बात कीजिए।

इस पर एक सज्जन ने कहा–महोदय, यह नेशनल बैंक है। इसका दिवाला निकल गया है। आदाब अर्ज! मुझे पहचाना?

कुँवर महोदय ने उनकी ओर देखा तो मोटर से कूद पड़े और उनसे हाथ मिलाते हुए बोले–अरे मिस्टर नसीम? तुम यहाँ कहाँ? भाई तुमसे मिलकर बड़ा आनंद हुआ।

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