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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580

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मिस्टर नसीम कुँवर साहब के साथ देहरादून कालेज में पढ़ते थे। दोनों साथ-साथ देहरादून की पहाड़ियों पर सैर करने जाया करते थे, परंतु जब से कुँवर महाशय ने घर के झंझटों से विवश होकर कालेज छोड़ा, दोनों मित्रों में भेंट न हुई थी। नसीम भी उनके आने के कुछ समय पीछे अपने घर लखनऊ चले आये थे।

नसीम ने उत्तर दिया–शुक्र है, आपने पहचाना तो। कहिए अब तो पौ बारह है। कुछ दोस्तों की भी सुध है?

कुँवर–सच कहता हूँ, तुम्हारी याद हमेशा आया करती थी। कहो, आराम से तो हो। मैं रायल होटल में टिका हुआ हूँ, आज आओ, तो इतमीनान से बातचीत हो।

नसीम–जनाब, इतमीनान तो नेशनल बैंक के साथ चला गया। अब तो रोजी की फिक्र सवार है। जो कुछ जमा-पूँजी थी, सब आपकी भेंट हुई। इस दिवाले ने फकीर बना दिया। अब आपके दरवाजे पर धरना दूँगा।

कुँवर–तुम्हारा घर है। बेखटके आओ। मेरे साथ ही क्यों न चलो। क्या बतलाऊँ, मुझे कुछ भी ध्यान न था, कि मेरे इन्कार करने का यह असर होगा। जान पड़ता है, बैंक ने बहुतेरों को तबाह कर दिया।

नसीम–घर-घर मातम छाया हुआ है। मेरे पास तो इन कपड़ों के सिवा और कुछ नहीं रहा।

इतने में एक तिलकधारी पंडित जी आ गये और बोले–महाराज, आपके शरीर पर वस्त्र तो है, यहाँ तो धरती-आकाश कहीं ठिकाना नहीं है। मैं राघोजी पाठशाला का अध्यापक हूँ। पाठशाला का सब धन इसी बैंक में जमा था। पचास विद्यार्थी इसी के आसरे संस्कृत पढ़ते और भोजन पाते थे। कल से पाठशाला बंद हो जायगी। दूर-दूर के विद्यार्थी हैं। वे अपने घर किस तरह पहुँचेंगे, यह ईश्वर ही जानें।

एक महाशय, जिनके सिर पर पंजाबी ढंग की पगड़ी थी, गाढ़े का कोट और चमरौधा जूता पहने हुए थे, आगे बढ़ आये और नेतृत्व के भाव से बोले–महाशय, इस बैंक के फेलियर ने कितने ही इन्सटीट्यूनों को समाप्त कर दिया। लाला दीनानाथ का अनाथालय अब एक दिन भी नहीं चल सकता। उसका एक लाख रुपया डूब गया। अभी पन्द्रह दिन हुए मैं डेपुटेशन से लौटा तो पन्द्रह हजार रुपये अनाथालय कोष में जमा किये थे, मगर अब कहीं कौड़ी का भी ठिकाना नहीं।

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