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प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


विनोदबिहारी ने कहा–आप तो घास खा गए हैं नाटक लिख लेना दूसरी बात है और मुआमले को पटाना दूसरी बात है। रुपये पृष्ठ सुना देगा, अपना-सा मुँह लेकर रह जाओगे।

अमरनाथ ने कहा–मैं तो समझता हूँ मोटर के लिए किसी राजा रईस की खुशामत करना बेकार है। तारीफ तो जब है, पाँव-पाँव चले और वहाँ ऐसा रंग जमाये कि मोटर से भी ज्यादा शान रहे।

विनोदबिहारी उछल पड़े। सब लोग पाँव-पाँव चले। वहाँ पहुँचकर किस तरह बातें शुरू होंगी। किस तरह तारीफों के पुल बाँधे जाएँगे, किस तरह ड्रामेटिस्ट साहब को खुश किया जाएगा, इस तरह बहस होती जाती थी।

वे लोग कम्पनी के कैम्प में कोई दो बजे पहुँचे। वहाँ मालिक साहब, उनके ऐक्टर नाटककार सब पहले ही से उनका इन्तज़ार कर रहे थे। पान, इलायची सिगरेट मँगा लिये गये थे।

ऊपर जाते ही रसिकलाल ने मालिक से कहा–क्षमा कीजिए हमें आने में देर हो गई। हम मोटर से नहीं पाँव-पाँव आये हैं आज यही सलाह हुई कि प्रकृति की छटा का आनन्द उठाते चलें। गुरुप्रसाद जी तो प्रकृति के उपासक हैं। इनका बस होता, तो आज चिमटा लिए या तो कहीं भीख माँग रहे होते, या किसी पहाड़ी गाँव में वटवृक्ष के नीचे बैठे पक्षियों का चहचहाना सुनते होते।

विनोद ने रद्दा जमाया–और आए भी तो सीधे रास्ते से नहीं, जाने कहाँ-कहाँ का चक्कर लगाते, खाक छानते। पैरों में जैसे सनीचर है।

अमर ने और रंग जमाया–पूरे सतजुगी आदमी हैं। नौकर-चाकर तो मोटरों पर सवार होते हैं और आप गली-गली मारे-मारे फिरते हैं। जब और रईस मीठी नींद के मजे लेते हैं, तो आप नदी के किनारे उषा का श्रृंगार देखते हैं।

मस्तराम ने फरमाया–कवि होना माने दीन दुनिया से मुक्त हो जाना है। गुलाब की एक पंखुडी लेकर उसमें न जाने क्या घंटों देखा करते हैं।

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