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प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


गुरुप्रसाद–नाटक लिखना बच्चों का खेल नहीं है, खूने जिगर पीना पड़ता है। मेरे खयाल में एक नाटक लिखने के लिए पाँच साल का समय भी काफी नहीं। बल्कि अच्छा ड्रामा जिंदगी में एक ही लिखा जा सकता है। यों कलम घिसना दूसरी बात है। बड़े-बड़े धुरंधर आलोचकों का यही निर्णय है कि आदमी जिंदगी में एक ही नाटक लिख सकता है। रूस, फ्रांस, जर्मनी सभी देशों के ड्रामें पढ़े; पर कोई-न-कोई दोष सभी में मौजूद। किसी में भाव है तो भाषा नहीं, भाषा है तो भाव नहीं। हास्य है तो गान नहीं, गान है तो हास्य नहीं, जब तक भाव भाषा हास्य और गान चारों अंग पूरे न हों, उसे ड्रामा कहना ही न चाहिए। मैं तो बहुत ही तुच्छ आदमी हूँ, कुछ आप लोगों की सोहबत में शुदबुद आ गया। मेरी रचना की हस्ती ही क्या? लेकिन ईश्वर ने चाहा, तो ऐसे दोष आपको न मिलेंगे।

विनोद–जब आप उस विषय के मर्मज्ञ हैं, तो दोष रह ही कैसे सकते हैं! रसिक-दस साल तक तो आपने केवल संगीत-कला का अभ्यास किया है। घर के हजारों रुपये उस्तादों को भेंट कर दिए, फिर भी दोष रह जाए, तो दुर्भाग्य है।

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रिहर्सल

रिहर्सल शुरू और वाह! वाह! हाय! हाय! का तार बँधा। कोरस सुनते ही ऐक्टर और प्रोप्राइटर और नाटककार सभी मानो जाग पड़े। भूमिका ने उन्हें विशेष प्रभावित न किया था; पर असली चीज सामने आते ही आँखें खुलीं। समाँ बँध गया। पहला सीन आया। आँखों के सामने वाजिदअली शाह के दरबार की तसवीर खिंच गई। दरबारियों की हाजिरजवाबी और फड़कते हुए लतीफे! वाह, वाह, वाह कहना है। क्या वाक्य रचना थी। क्या शब्द-योजना थी, रसों का जितना सुरुचि से भरा हुआ समावेश था तीसरा दृश्य हास्यमय था हँसते-हँसते लोगों की पसलियाँ दुखने लगीं, स्थूल कायस्वामी की संयत अविचलितता भी आसन से डिग गई, चौथा सीन करुणाजनक था। हास्य के बाद करुणा, आँधी के बाद आने वाली शांति थी। विनोद आँख पर हाथ रखे सिर झुकाएँ जैसे रो रहे थे। मस्तराम बार-बार ठंडी आहें भींच रहे थे। और अमरनाथ बार-बार सिसकियाँ भर रहे थे। इसी तरह सीन पर सीन और अंक पर अंक समाप्त होते गए, यहाँ तक कि जब सिहर्सल समाप्त हुआ, तो दीपक जल चुके थे।

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