सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
श्रद्धा– हाँ, प्रातःकाल गंगा स्नान होता है, संध्या को कीर्तन सुनने जाती हैं।
इतने में मायाशंकर ने आकर माता के चरण स्पर्श किए। विद्या ने उसे छाती से लगाया और बोली– बेटा, आराम से तो रहे?
माया– जी हाँ, खूब आराम से था।
विद्या– बहिन, देखो इतने ही दिनों में इसकी आवाज कितनी बदल गयी है! बिलकुल नहीं पहचानी जाती। मौसी जी के क्या रंग-ढंग हैं? खूब प्यार करती हैं न?
माया– हाँ, मुझे बहुत चाहती हैं, बहुत अच्छा मिजाज है।
विद्या– वहाँ भी कृष्णलीला होती थी कि नहीं?
माया– हाँ, वहाँ तो रोज ही होती रहती थी। कीर्तन नित्य होता था। मथुरा-वृन्दावन से रहस्वाले बुलाये जाते थे। बाबू जी भी कृष्ण का पार्ट खेलते हैं। उनके केश खूब बढ़ गये हैं। सूरत से महन्त मालूम होते हैं तुमने तो देखा होगा?
विद्या– हाँ, देखा क्यों नहीं! बहिन अब भी उदास रहती है?
माया– मैंने तो उन्हें कभी उदास नहीं देखा। हमारे घर में ऐसा प्रसन्नचित्त कोई है ही नहीं।
विद्या यह प्रश्न यों पूछ रही थी जैसे कोई वकील गवाह से जिरह कर रहा हो। प्रत्येक उत्तर सन्देह को दृढ़ करता था। दस बजे द्वार पर मोटर की आवाज सुनायी दी। सारे घर में हलचल मच गयी। कोई महरी गायत्री का पलँग बिछाने लगी, कोई उसके स्लीपरों को पोंछने लगी, किसी ने फर्श झाड़ना शुरू किया, कोई उसके जलपान की सामग्रियाँ निकाल कर तश्तरी में रखने लगी और एक ने लोटा-गिलास माँज कर रख दिया। इतने में गायत्री ऊपर आ पहुँची। पीछे-पीछे ज्ञानशंकर भी थे। विद्या अपने कमरे में से न निकली, लेकिन गायत्री लपक कर उसके गले से लिपट गयी और बोली– तुम कब आयीं? पहले से खत भी न लिखा?
विद्या गला छुड़ा कर अलग खड़ी हो गयी और रुखाई से बोली– खत लिख कर क्या करती? यहाँ किसे फुरसत थी कि मुझे लेने जाता। दामोदर महाराज के साथ चली आयी।
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