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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


गायत्री– एक बार फिर वही लीला करने का विचार है। अबकी तुम्हें भी कोई-न-कोई पार्ट दूँगी।

विद्या– नहीं, मुझे क्षमा करना। नाटक खेल कर स्वर्ग में जाने की मुझे आशा नहीं है।

गायत्री विस्मित हो कर विद्या का मुँह ताकने लगी। लेकिन ज्ञानशंकर मन में मुग्ध हुए जाते थे। दोनों बहिनों में वह जो भेद-भाव डालना चाहते थे, वह आप-ही-आप आरोपित हो रहा था। ये शुभ लक्षण थे। गायत्री से बोले– मेरे विचार में यहाँ अब आपको कष्ट होगा। क्यों न बँगले में एक कमरा आपके लिए खाली कर दूँ? वहाँ आप ज्यादा आराम से रह सकेंगी।

गायत्री ने विद्या की तरफ देखते हुए कहा– क्यों विद्या, बँगले में चली जाऊँ? बुरा तो न मानोगी? मेरे यहाँ रहने से तुम्हारे आराम में विघ्न पड़ेगा। मैं बहुधा भजन गाया करती हूँ।

विद्या– तुम मेरे आराम की चिन्ता मत करो, मैं इतनी नाजुक दिमाग नहीं हूँ। हाँ, अगर तुम्हें यहाँ कोई असमंजस हो तो शौक से बँगले में चली जाओ।

ज्ञानशंकर ने गायत्री का असबाब उठाकर बंगले में रखवा दिया। गायत्री ने भी विद्या से और कुछ न कहा। उसे मालूम हो गया कि यह समय ईर्ष्या के मारे मरी जाती है। और ऐसा कौन प्राणी होगा, जो ईर्ष्या की क्रीड़ा का आनन्द न उठाना चाहे? उसने एक बार विद्या को सगर्व नेत्रों से देखा और जीने की तरफ चली गयी।

रात के नौ बजे थे। गायत्री वीणा पर गा रही थी कि ज्ञानशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। उन्होंने आज देवी से वरदान माँगने का निश्चय कर लिया था। लोहा लाल हो रहा था, अब आगा-पीछा करने का अवसर न था, ताबड़तोड़ चोटों की जरूरत थी। एक दिन की देर भी बरसों के अविरल उद्योग पर पानी फेर सकती थी, जीवन की समस्त आशाओं को मिट्टी में मिला सकती थी। विद्या की अनुचित बात सारी बाजी को पलट सकती थी, उसका एक द्वेषमूलक संकेत उनके सारे हवाई किलों को विध्वंस कर सकता था। कदाचित किसी सेनापति को रणक्षेत्र में इतना महत्त्वपूर्ण और निश्चयकारी अवसर न प्रतीत होगा, जितना इस समय ज्ञानशंकर को मालूम हो रहा था। उनकी अवस्था उस सिपाही की-सी थी जो कुछ दूर पर खड़ा शस्त्रशाला में आग की चिनगारी पड़ते देखे और उसको बुझाने के लिए बेतहाश दौड़े। उसका द्रुतवेग कितना महत्त्वपूर्ण, कितना मूल्यवान है! एक क्षण का विलम्ब सेना के सर्वनाश, दुर्ग के दमन, राज्य के विक्षेप और जाति के पददलित होने के कारण हो सकता है! ज्ञानशंकर आज दोपहर से इसी समस्या के हल करने में व्यस्त थे। क्योंकर विषय को छेड़ूँ? ऐसा अन्दाजा होना चाहिए कि मेरी निष्कामवृत्ति का पर्दा न खुलने पाये। उन्होंने अपने मन में विषय-प्रवेश का ऐसा क्रम बाँधा था कि मायाशकंर को गोद लेने का प्रस्ताव गायत्री की ओर से हो और उसके गुण-दोषों की निःस्वार्थ भाव से व्याख्या करूँ। मेरी हैसियत एक तीसरे आदमी की-सी रहे, एक शब्द से भी पक्षपात प्रकट न हो। उन्होंने अपनी बुद्धि, विचार, दूरदर्शिता और पूर्व-चिन्ता से कभी इतना काम न लिया था। सफलता में जो बाधाएँ उपस्थित होने की कल्पना हो सकती थी उन सबों की उन्होंने योजना कर ली थी। अपने मन में एक-एक शब्द, एक-एक इशारे, एक-एक भाव का निश्चय कर लिया था। वह एक केसरिया रंग की रेशमी चादर ओढ़े हुए थे, लम्बे केश चादर पर बिखरे पड़े थे, आँखों से भक्ति का आनन्द टपक रहा था और मुखारविन्द प्रेम की दिव्यज्योति से आलोकित था।

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