सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
उन्होंने गायत्री को अनुरागमय दृष्टि से देख कर कहा– आपके पदों में गजब का जादू है। हृदय में प्रेम की तरंगे उठने लगती हैं, चित्त भक्ति से उन्मत्त हो जाता है।
गायत्री ने मुस्करा कर कहा, यह जादू मेरे पदों में नहीं है। आपके कोमल हृदय में है। बाहर की फीकी नीरस ध्वनि भी अन्दर जा कर सुरीली और रसमयी हो जाती है। साधारण दीपक भी मोटे शीशे के अन्दर बिजली का लैम्प बन जाता है।
ज्ञानशंकर– मेरे चित्त की आजकल एक विचित्र दशा हो गयी है। मुझे अब विश्वास हो गया है कि मनुष्य में एक ही साथ दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों का समावेश नहीं हो सकता, एक आत्मा दो रूप धारण नहीं कर सकती।
गायत्री ने उनकी और जिज्ञासा भाव से देखा और वीणा को मेज पर रख कर उनका मुँह देखने लगी।
ज्ञानशंकर ने कहा– हम जो रूप धारण करते हैं। उसका हमारी बातचीत और आचार-व्यवहार पर इतना असर पड़ता है कि हमारी वास्तविक स्थिति लुप्त-सी हो जाती है। अब मुझे अनुभव हो रहा है कि लोग क्यों लड़कों को नाटकों में स्त्रियों का रूप धरने, नाचने, और भाव बताने पर आपत्ति करते हैं। एक दयालु प्रकृति का मनुष्य सेना में रह कर कितना उद्दंड और कठोर हो जाता है। परिस्थितियाँ उसकी दयालुता का नाश कर देती हैं। मेरे कानों में अब नित्य वंशी की मधुर-ध्वनि गूँजा करती है और आँखों के सामने गोकुल और बरसाने की छटा फिरा करती है। मेरी सत्ता कृष्ण में विलीन हो जाती है, राधा अब, एक क्षण के लिए मेरे ध्यान से नहीं उतरती। कुछ समझ में नहीं आता कि मेरा मन मुझे किधर लिये जाता है?
यह कहते-कहते ज्ञानशंकर की आँखों से ज्योति-सी निकलने लगी, मुखमंडल पर अनुराग छा गया और वाणी माधुर्य रस में डूब गयी। बोले– गायत्री देवी, चाहे यह छोटा मुँह और बड़ी बात हो, पर सच्ची बात यह है कि इसे आत्मोत्सर्ग की दशा में तुम्हारा उच्च पद, तुम्हारा धन-वैभव, तुम्हारा नाता सब मेरी आँखों में लुप्त हो जाता है और तुम मुझे वही राधा, वही वृन्दावन की अलबेली, तिरछी चितवन वाली, मीठी मुस्कान वाली, मृदुलभावों वाली, चंचल-चपल राधा मालूम होती हो। मैं इन भावनाओं को हृदय से मिटा देना चाहता हूँ, लाखों यत्न यन्त करता हूँ पर वह मेरी नहीं मानता। मैं चाहता हूँ कि तुम्हें रानी गायत्री समझूँ जिसका मैं एक तुच्छ सेवक हूँ, पर बार-बार भूल जाता हूँ। तुम्हारी एक आवाज, तुम्हारी एक झलक तुम्हारे पैरों की आहट, यहाँ तक कि केवल तुम्हारी याद मुझे इस बाह्य जगत् ने उठाकर किसी दूसरे जगत में पहुँचा देती है। मैं अपने को बिल्कुल भूल जाता हूँ, अब तक इस चित्त वृत्ति को गुप्त रखा था, लेकिन जैसे मिजराव की चोट से सितार ध्वनित हो जाता है। उसी भाँति प्रेम की चोट से हृदय स्वरयुक्त हो जाता है। मैंने आप से अपने चित्त की दशा कह सुनायी, सन्तोष हो गया। इस प्रीति का अन्त क्या होगा, इसे उसके सिवा और कौन जानता है जिसने हृदय में यह ज्वाला प्रदीप्त की है।
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