सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
वह दो-तीन मिनट तक विचार में मग्न रही। सोच रही थी कि ऐसा कौन लड़का है जिसे मैं गोद ले सकूँ। मन ही मन अपने सम्बन्धियों और कुटुम्बियों का दिग्दर्शन किया, लेकिन यह समस्या हल न हुई। लड़के थे, एक नहीं अनेक, लेकिन किसी न किसी कारण से वह गायत्री को न जँचते थे। सोचते-सोचते सहसा वह चौंक पड़ी और मायाशंकर का नाम उसकी जबान पर आते-आते रह गया। ज्ञानशंकर ने अब तक अपनी मनोवांछा को ऐसा गुप्त रखा था और अपने आत्मसम्मान की ऐसी धाक जमा रखी थी कि पहले तो मायाशंकर की ओर गायत्री का ध्यान ही न गया और जब गया तो उसे अपना विचार प्रकट करते हुए भय होता था कि कहीं ज्ञानशंकर के मर्यादाशील हृदय को चोट न लगे। हालाँकि ज्ञानशंकर का इशारा साफ था, पर गायत्री पर इस समय वह नशा था जो शराब और पानी में भेद नहीं कर सकता। उसने कई बार हिम्मत की कि जिक्र छेड़ूँ किन्तु ज्ञानशंकर के चेहरे से ऐसा निष्काम भाव झलक रहा था कि उसकी जबान न खुल सकी। मायाशंकर की विचारशीलता, सच्चरित्रता, बुद्धिमत्ता आदि अनेक गुण उसे याद आने लगे। उससे अच्छे उत्तराधिकारी की वह कल्पना भी न कर सकती थी। ज्ञानशंकर उसको असमंजस में देख कर बोले– आया कोई लड़का ध्यान में?
गायत्री सकुचाती हुई बोली– जी हाँ, आया तो, पर मालूम नहीं आप भी उसे पसंद करेंगे या नहीं? मैं इससे अच्छा चुनाव नहीं कर सकती।
ज्ञानशंकर– सुनूँ कौन है?
गायत्री– वचन दीजिए कि आप उसे स्वीकार करेंगे।
ज्ञानशंकर के हृदय में गुदगुदी होने लगी। बोले– बिना जाने-बूझे मैं यह वचन कैसे दे सकता हूँ?
गायत्री– मैं जानती हूँ कि आपको उसमें आपत्ति होगी और विद्या तो किसी प्रकार राजी ही न होगी, लेकिन इस बालक के सिवा मेरी नजर और किसी पर पड़ती नहीं।
ज्ञानशंकर अपने मनोल्लास को छिपाए हुए बोले– सुनूँ तो किसका भाग्य सूर्य उदय हुआ है।
गायत्री– बता दूँ? बुरा तो न मानिएगा न?
ज्ञान– जरा भी नहीं, कहिये।
गायत्री– मायाशंकर।
ज्ञानशंकर इस तरह चौंक पड़े मानों कानों के पास कोई बन्दूक छूट गयी हो। विस्मित नेत्रों से देखा और इस भाव से बोले मानों उसने दिल्लगी की है– मायाशंकर!
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