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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


गायत्री– हाँ, आप वचन दे चुके हैं, मानना पड़ेगा।

ज्ञानशंकर– मैंने कहा था कि नाम सुन कर राय दूँगा। अब नाम सुन लिया और विवशता से कहता हूँ मैं आप से सहमत नहीं हो सकता।

गायत्री– मैं यह बात पहले से ही जानती थी, पर मुझमें और आप में जो सम्बन्ध है उसे देखते हुए आपको आपत्ति न होती चाहिए।

ज्ञानशंकर– मुझे स्वयं कोई आपत्ति नहीं है। मैं अपना सर्वस्व आप पर समर्पण कर चुका हूँ, लड़का भी आप की भेंट है, लेकिन आपको मेरी कुल-मर्यादा का हाल मालूम है। काशी में सम्मानित और कोई घराना नहीं है। सब तरह से पतन होने पर भी उसका गौरव अभी तक बचा हुआ है। मेरे चाचा और सम्बन्धी इसे कभी मंजूर न करेंगे और विद्या तो सुनकर विष खाने को उतारू हो जायेगी। इसके अतिरिक्त मेरी बदनामी भी है। सम्भव है लोग यह समझेंगे कि मैंने आपकी सरलता और उदारता से अनुचित लाभ उठाया है और और आपके कुटुम्ब के लोग तो मेरी जान के गाहक ही हो जायेंगे।

गायत्री– मेरे कुटुम्बियों की ओर से तो आप निश्चिन्त रहिए, मैं उन्हें आपस में लड़ा कर मारूँगी। बदनामी और लोक-निन्दा आपको मेरी खातिर से सहनी पड़ेगी। रही विद्या, उसे मैं मना लूँगी।

ज्ञान– नहीं, यह आशा न रखिए। आप उसे मनाना जितना सुगम समझ रही हैं उससे कहीं कठिन है। आपने उसके तेवर नहीं देखे। वह इस समय सौतिया डाह से जल रही है। उसे अमृत भी दीजिए तो विष समझेगी। जब तक लिखा-पढ़ी न हो जाये और प्रथानुसार सब संस्कार पूरे न हो जायें उसके कानों में इसकी भनक भी न पड़नी चाहिए। यह तो सच होगा मगर उन लोगों की हाय किस पर पड़ेगी जो बरसों से रियासत पर दाँत लगाये बैठे है? उनके घरों में तो कुहराम मच जायगा। सब के सब मेरे खून के प्यासे हो जायेंगे। यद्यपि मुझे उनसे कोई भय नहीं है, लेकिन शत्रु को कभी तुच्छ न समझना चाहिए। हम जिससे धन और धरती लें उससे कभी निःशंक नहीं रह सकते।

गायत्री– आप इन दुष्टों का ध्यान ही न कीजिए। ये कुत्ते हैं, एक छीछड़े पर लड़ मरेंगे।

ज्ञानशंकर कुछ देर तक मौन रूप से जमीन की ओर ताकते रहे, जैसे कोई महान् त्याग कर रहे हों। फिर सजल नेत्रों से बोले, जैसी आपकी मरजी, आपकी आज्ञा सिर पर है। परमात्मा से प्रार्थना है कि यह लड़का आपको मुबारक हो और उससे आपकी जो आशाएँ हैं, वह पूरी हों। ईश्वर उसे सद्बुद्धि प्रदान करे कि वह आपके आदर्श को चरितार्थ करे। वह आज से मेरा लड़का नहीं, आपका है। यद्यपि अपने एक मात्र पुत्र को छाती से अलग करते हुए दिल पर जो कुछ बीत रही है वह मैं ही जानता हूँ, लेकिन वृन्दावनबिहारी ने आपके अन्तःकरण में यह बात डाल कर मानो हमारे लिए भक्ति-पथ का द्वार खोल दिया है। वह हमें अपने चरणों की ओर बुला रहे हैं। हमारा परम सौभाग्य है।

गायत्री ने ज्ञानशंकर का हाथ पकड़ कर कहा– कल ही किसी पंडित से शुभ मुहूर्त पूछ लीजिए।

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