लोगों की राय

सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

370 पाठक हैं

‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


थोड़ी देर तक विद्या मूर्च्छित दशा में पड़ी रही। श्रद्धा उसका सिर गोद में लिये बैठी रोती रही। मैं अपने को ही अभागिनी समझती थी। इस दुखिया की विपत्ति और भी दुस्सह है। किसी रीति से उन्हें (प्रेमशंकर को) यह खबरें होतीं, तो वह अवश्य गायत्री को समझाते। गायत्री उनका आदर करती हैं। शायद मान जाती; लेकिन इस महापुरुष के सामने उनकी भेंट भी तो गायत्री से नहीं हो सकती। इसी भय से तो घर से बाहर निकल गये हैं कि काम में कोई विघ्न-बाधा न पड़े। कुछ नहीं, सब इसी की भूल है। ज्यों ही मैंने इससे गोद लेने की बात कही, इसे उसी क्षण बाहर जाकर दोनों को फटकारना और माया का हाथ पकड़कर खींच लाना चाहिए था। मजाल थी कि मेरे पुत्र का कोई मुझसे छीन ले जाता! सहसा विद्या ने आँखें खोल दीं और क्षीण स्वर से बोली– बहिन अब क्या होगा?

श्रद्धा– होने को अब भी सब कुछ हो सकता है। करनेवाला चाहिए।

विद्या– अब कुछ नहीं हो सकता। सब तैयारिया हो रही हैं, चाचा जी न जाने कैसे राजी हो गये!

श्रद्धा– मैं जरा जा कर कहारों से पूछती हूँ कि कब तक आने को कह गये हैं।

विद्या– शाम होने के पहले ये लोग कभी न लौटेगे। माया को हटा देने के लिए ही यह चाल चली गई है। इन लोगों ने जो बात मन में ठान ली है वह होकर रहेगी। पिताजी का शाप मेरी आँखों के सामने है। यह अनर्थ होना है और होगा।

श्रद्धा– जब तुम्हारी यही दशा है तो जो कुछ हो जाये वह थोड़ा है।

विद्या ने कुतूहल से देखकर कहा– भला मेरे बस की कौन सी बात है?

श्रद्धा– बस की बात क्यों नहीं है? अभी शाम को जब यह लोग लौटें तब नीचे चली जाओ और माया का हाथ पकड़कर खींच लाओ। वह न आए तो सारी बातें खोलकर उससे कह दो। समझदार लड़का है, तुरन्त उनसे उसका मन फिर जायेगा।

विद्या– (सोचकर) और यदि समझाने से भी न आए? इन लोगों ने उसे खूब सिखा-पढ़ा रखा होगा।

श्रद्धा– तो रात को जब शहर के लोग जमा हों, जा कर भरी सभा में कह दो, वह सब मेरी इच्छा के विरुद्ध है। मैं अपने पुत्र को गोद नहीं देना चाहती। लोगों की सब चालें पट पड़ जायें। तुम्हारी जगह मैं होती तो वह महनामथ मचता कि इनके दाँत खट्टे हो जाते। क्या करूँ, मेरा कुछ अधिकार नहीं है, नहीं तो इन्हें तमाशा दिखा देती!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book