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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


विद्या ने निराश भाव से कहा– बहिन, मुझसे यह न होगा। मुझमें न इतनी सामर्थ्य है, न साहस। अगर और कुछ न हो, माया ही मेरी बातों को दुलख दे तो उसी क्षण मेरा कलेजा फट जायेगा। भरी सभा में जाना तो मेरे लिए असम्भव है। उधर पैर ही न उठेंगे। उठे भी तो वहाँ जाकर जबान बन्द हो जायेगी।

श्रद्धा– पता नहीं ये लोग किधर गये हैं। एक क्षण के लिए गायत्री एकान्त में मिल जाती तो एक बार मैं भी समझा देखती।

दीवानखाने में आनन्दोत्सव हो रहा था। मास्टर अलहदीन का अलौकिक चमत्कार लोगों का मुग्ध कर रहा था। द्वार पर दर्शकों की भीड़ लगी हुई थी। सहन में ठट के ठट कंगले जमा थे। मायाशंकर को दिन भर के बाद माँ की याद आई। वह आज आनन्द से फूला न समाता था। जमीन पर पाँव न पड़ते थे। दौड़-दौड़ कर काम कर रहा था। ज्ञानशंकर बार-बार कहते, तुम आराम से बैठो। इतने आदमी तो हैं ही, तुम्हारे हाथ लगाने की क्या जरूरत है? पर उससे बेकार नहीं बैठा जाता था। कभी लैम्प साफ करने लगता, कभी खसदान उठा लेता। आज सारे दिन मोटर पर सैर करता रहा। लौटते ही पद्यशंकर और तेजशंकर से सैर का वृत्तान्त सुनाने लगा, यहाँ गये, वहाँ गये, यह देखा, वह देखा। उसे अतिशयोक्ति में बड़ा मजा आ रहा था। यहाँ से छुट्टी मिली तो हवन पर जा बैठा। इसके बाद भोजन में सम्मिलित हो गया। जब गाना आरम्भ हुआ तो उसका चंचल चित्त स्थिर हुआ। सब लोग गाना सुनने में तल्लीन हो रहे थे, उसकी बातें सुननेवाला कोई न था। अब उसे याद आया, अम्माँ को प्रणाम करने तो गया ही नहीं! ओहो, अम्माँ मुझे देखते ही दौड़कर छाती से लगा लेंगी। आशीर्वाद देंगी। मेरे इन रेशमी कपड़ों की खूब तारीफ करेंगी। वह ख्याली पुलाव पकाता, मुस्कराता हुआ विद्या के कमरे में गया। वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था, एक धुँधली सी दीवालगीर जल रही थी। विद्या पलँग पर पड़ी हुई थी। महरियाँ नीचे गाना सुनने चली गई थीं। लाला प्रभाशंकर के घर की स्त्रियों को न बुलावा दिया गया था और न वे आई थीं। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई कुछ पढ़ रह थी। माया ने माँ के समीप जा कर देखा– उसके बाल बिखरे हुए थे, आँखों से आँसू बह रहे थे, होंठ नीले पड़ गये थे, मुख निस्तेज हो रहा था। उसने घबरा कर कहा– अम्माँ, अम्माँ! विद्या ने आँखें खोलीं और एक मिनट तक उसकी ओर टकटकी बाँधकर देखती रही मानों अपनी आँखों पर विश्वास नहीं है। तब वह उठ बैठी। माया को छाती से लगाकर उसका सिर अंचल से ढँक लिया मानो उसे किसी आघात से बचा रही हो और उखड़े हुए स्वर में बोली, आओ मेरे प्यारे लाला! तुम्हें आँख भर देख लूँ। तुम्हारे ऊपर बहुत देर से जी लगा हुआ था। तुम्हें लोग अग्निकुण्ड की ओर ढकेल लिये जाते थे। मेरी छाती धड़-धड़ करती थी! बार-बार पुकारती थी, लेकिन तुम सुनते ही न थे। भगवान् ने तुम्हें बचा लिया। वही दीनों के रक्षक हैं। अब मैं तुम्हें न जाने दूँगी। यही मेरी आँखों के सामने बैठो। मैं तुम्हें देखती रहूँगी– देखो, देखो! वह तुम्हें पकड़ने के लिए दौड़ा आता है, मैं किवाड़ बन्द किये देती हूँ। तुम्हारा बाप है। लेकिन उसे तुम्हारे ऊपर जरा भी दया नहीं आती। मैं किवाड़ बन्द कर देती हूँ। तुम बैठे रहो।

यह कहते हुए वह द्वार की ओर चली, मगर पैर लड़खड़ाए और अचेत हो कर फर्श पर गिर पड़ी। माया उसकी दशा देखकर और उसकी बहकी-बहकी बातें सुनकर थर्रा गया। मारे भय के वहाँ एक क्षण भी न ठहर सका। तीर के समान कमरे से निकला और दीवाने खाने में आकर दम लिया। ज्ञानशंकर मेहमानों के आदर सत्कार में व्यस्त थे। उनसे कुछ कहने का अवसर न था। गायत्री चिक कि आड़ में बैठी हुई सोच रही थी, इस अलहदीन को कीर्तन के लिए नौकर रख लूँ तो अच्छा हो। मेरे मन्दिर की सारे देश में धूम मच जाये। माया ने आकर कहा– मौसी जी, आप चलकर जरा अम्माँ को देखिए। न जाने कैसी हुई जाती हैं। उन्हें डेलिरियम सा हो गया है।

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