सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
370 पाठक हैं |
‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
एक क्षण में ज्ञानशंकर और माया। दोनों ऊपर आए। श्रद्धा भी हलचल सुनकर दौड़ी हुई आई। ज्ञानशंकर ने विद्या को दो-तीन बार पुकारा, पर उसने आँखें न खोली। तब उन्होंने आलमारी से गुलाबजल की बोतल निकाली और उसके मुँह पर कई बार छीटें दिए। विद्या की आँखें खुल गयीं, किन्तु पति को देखते ही उसने जोर से चीख मारी। यद्यपि हाथ-पाँव अकड़े हुए थे, पर ऐसा जान पड़ा कि उसमें कोई विद्युत शक्ति दौड़ गई। वह तुरन्त उठकर खड़ी हो गयी। दोनों हाथों से आँख बन्द किये द्वार की ओर चली। गायत्री ने उसे सँभाला और पूछा– विद्या, पहचानती नहीं, बाबू ज्ञानशंकर हैं। विद्या ने सशंक और भयभीत नेत्रों से देखा और पीछे हटती हुई बोली– अरे, यह फिर आ गया। ईश्वर के लिए इससे मुझे बचाओ।
गायत्री– विद्या, तबीयत को जरा सँभालो। तुमने कुछ खा तो नहीं लिया है। डॉक्टर को बुलाऊँ!
विद्या– मुझे इससे बचाओ, ईश्वर के लिए मुझे इससे बचाओ।
गायत्री– पहचानती नहीं हो, बाबूजी हैं।
विद्या– नहीं-नहीं, यह पिशाच है। इसके लम्बे बाल हैं। वह देखो दाँत निकाले मेरी ओर दौड़ा आता है। हाय-हाय! इसे भगाओ, मुझे खा जायेगा। देखो-देखो, मुझे पकड़े लेता है। इसके सींग हैं, बड़े-बड़े दाँत है, बड़े-बड़े नख हैं। नहीं, मैं न जाऊँगी। छोड़ दे दुष्ट, मेरा हाथ छोड़ दे। हाय! मुझे अग्नि कुण्ड मे झोंके देता है। अरे देखो माया को पकड़ लिया। कहता है, बलिदान दूँगा! दुष्ट तेरे हृदय में जरा भी दया नहीं है? उसे छोड़ दे, मैं चलती हूँ मुझे कुण्ड में झोंके दे, पर ईश्वर के लिए उसे छोड़ दे, मैं चलती हूँ, मुझे कुण्ड में झोंके दे, पर ईश्वर के लिए उसे छोड़ दे। यह कहते-कहते विद्या फिर मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। ज्ञानशंकर ने लज्जायुक्त चिन्ता से कहा, जहर खा लिया। मैं अभी डॉक्टर प्रियनाथ के यहाँ जाता हूँ। शायद उनके यत्न से अब भी इसके प्राण बच जायें। मुझे क्या मालूम था कि माया को तुम्हारी गोद का इसे इतना दुख होगा। मैंने इसे आज तक न समझा। यह पवित्र आत्मा थी, देवी थी, मेरे जैसे लोभी, स्वार्थी मनुष्य के योग्य न थी।
यह कह कर वह आँखों से आँसू भरे चले गये। श्रद्धा ने विद्या को उठाकर गोद में ले लिया। गायत्री पंखा झलने लगी। माया खड़ा रो रहा था। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था, वह सन्नाटा जो मृत्यु-स्थान के सिवा और कहीं नहीं होता। सब की सब विद्या को होश में लाने का प्रयास कर रही थीं, पर मुँह से कोई कुछ न कहता था। सब के दिलों मृत्यु-भय छाया हुआ था।
आधे घण्टे के बाद विद्या की आँखें खुलीं। उसने चारों ओर सहमे हुए नेत्रों से देख कर इशारे से पानी माँगा।
श्रद्धा ने गुलाबजल और पानी मिलाकर कटोरा उसके मुँह से लगाया। उसने पानी पीने को मुँह खोला, लेकिन होठ खुले रह गये, अंगों पर इच्छा का अधिकार नहीं रहा। एक क्षण में आँखों की पुतलियाँ फिर गयीं।
|