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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


श्रद्धा समझ गई कि यह अन्तिम क्षण है। बोली-बहिन, किसी से कुछ कहना चाहती हो? माया तुम्हारे सामने खड़ा है।

विद्या की बुझी आँखें श्रद्धा की ओर फिरीं, आँसू की चन्द बूँदे गिरी, शरीर में कम्पन हुआ और दीपक बुझ गया!

एक सप्ताह पीछे मुन्नी भी हुड़क-हुड़क कर बीमार पड़ गई। रात-दिन अम्माँ-अम्माँ की रट लगाया करती। न कुछ खाती न पीती, यहाँ तक कि दवाएँ पिलाने के समय मुँह ऐसा बन्द कर लेती कि किसी तरह न खोलती। श्रद्धा गोद में लिये पुचकारती-फुसलाती, पर सफल न होती। बेचारा माया गोद में लिये उसके मुरझाए मुँह की ओर देखता और रोता। ज्ञानशंकर को तो अवकाश न मिलता था, लाला प्रभाशंकर दिन में कई बार डॉक्टर के पास जाते, दवाएँ लाते, लड़की का मन बहलाने के लिए तरह-तरह के खिलौने लाते, पर मुन्नी उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखती! गायत्री से न जाने क्या चिढ़ थी। उसकी सूरत देखते ही रोने लगती। एक बार गायत्री ने गोद में उठा लिया तो उसे दाँतों से काट लिया। चौथे दिन उसे ज्वर हो आया और तीन दिन बीमार रह कर मातृ-हृदय की भूखी बालिका चल बसी।

विद्या के मरने के पीछे विदित हुआ कि वह कितनी बहुप्रिय और सुशीला थी। मुहल्ले की स्त्रियाँ श्रद्धा के पास आकर चार आँसू बहा जातीं। दिन भर उनका ताँता रहता! बड़ी बहू और उनकी बहू भी सच्चे दिल से उसका मातम कर रही थी! उस देवी ने अपने जीवन में किसी को ‘रे’ या ‘तू’ नहीं कहा, महरियों से हँस-हँस कर बातें करती। नसीब चाहे खोटा था, हृदय में दया थी। किसी का दुःख न देख सकती थी। दानशीला ऐसी थी कि किसी भूखे भिखारी, दुखियारे को द्वार से फिरने न देती थी, धेले की जगह पैसा और आध पाव की जगह पाव देने की नीयत रखती थी। गायत्री इन स्त्रियों से आँखें चुराया करती। अगर वह कभी आ पड़ती तो सब चुप हो जाती और उसकी अवहेलना करतीं। गायत्री उनकी श्रद्धापात्र बनने के लिए उनके बालकों को मिठाइयाँ और खिलौने देती विद्या की रो-रो कर चर्चा करती पर उसका मनोरथ पूरा न होता था। यद्यपि कोई स्त्री मुँह से कुछ न कहती थी, लेकिन उनके कटाक्ष व्यंग्य से भी अधिक मर्मभेदी होते थे। एक दिन बड़ी बहू ने गायत्री के मुँह पर कहा– न जाने ऐसा कौन सा काँटा था जिसने उसके हृदय में चुभ कर जान ली। दूध-पूत सब भगवान् ने दिया था, पर इस काँटे की पीड़ा न सही गयी। यह काँटा कौन थे, इस विषय में महिलाओं की आँखें उनकी वाणी से कहीं सशब्द थीं। गायत्री मन में कटकर रह गयी।

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