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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


इतने में चारों महरियाँ आयीं। गायत्री ने उनसे कहा–  मैं आज बद्रीनाथ की यात्रा करने जा रही हूँ। तुममें से कौन मेरे साथ चलती है?

महरियों ने एक स्वर से कहा– हम सब की सब चलेंगी।

‘नहीं, मुझे केवल एक की जरूरत है। गुलाबों तुम मेरे साथ चलोगी?’

‘सरकार जैसे हुक्म दें। बाल-बच्चों को महीनों से नहीं देखा है।’

‘तो तुम घर जाओ। तुम चलोगी केसरी?’

‘कब तक लौटना होगा?’

‘यह नहीं कह सकती।’

‘मुझे चलने की कोई उजुर नहीं है पर सुनती हूँ वहाँ का पहाड़ी पानी बहुत लगता है।’

‘तो तुम भी घर जाओ। तू चलेगी अनसूया?’

‘सरकार, मेरे घर कोई मर्द-मानुष नहीं है। घर चौपट हो रहा है। वहाँ चलूँगी तो छटाँक भर दाना भी न मिलेगा।’

‘तो तुम भी घर जाओ। अब तो तुम्हीं रह गयीं राधा, तुमसे भी पूछ लिया चलोगी मेरे साथ?’

‘हाँ, सरकार चलूँगी।’

‘आज चलना होगा।’

‘जब सरकार का जी चाहे, चलें।’

‘तुम्हें बीस बीघे मुआफी मिलेगी।’

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