सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
शीलमणि ने आकाश की तरफ देखा तो बादल घिर आए थे। घबरा कर बोली– कहीं पानी न बरसने लगे। अब चलूँगी। श्रद्धा ने उसे रोकने की बहुत चेष्टा की, लेकिन शीलमणि ने न माना। आखिर उसने कहा, जरा चल कर उनके आँसू तो पोंछ दो। बेचारी तभी से बैठी रो रही होगी।
शीलमणि– रोना तो उनके नसीब में लिखा है। अभी क्या रोयी है! ऐसे आदमी की यही सजा है। नाराज होकर मेरा क्या बना लेंगी? रानी होंगी तो अपने घर की होंगी।
शीलमणि को विदा करके श्रद्धा झेंपती हुई गायत्री के पास आयी। वह डर रही थी, कहीं गायत्री मुझ पर सन्देह न करने लगी हो कि सारी करतूत इसी की है। उसने डरते-डरते अपराधी की भाँति कमरे में कदम रखा। गायत्री ने प्रार्थी दृष्टि से उसे देखा, पर कुछ बोली नहीं। बैठी हुई कुछ लिख रही थी। मुख पर शोक के साथ दृढ़ संकल्प की झलक थी। कई मिनट तक वह लिखने में ऐसी मग्न थी मानों श्रद्धा के आने का उसे ज्ञान ही न था। सहसा बोली– बहिन, अगर तुम्हें कष्ट न हो तो जरा माया को बुला दो और मेरी महरियों को भी पुकार लेना।
श्रद्धा समझ गयी कि इसके मन में कुछ और ठन गयी। कुछ पूछने का साहस न हुआ। जा कर माया और महरियों को बुलाया। एक क्षण में माया आकर गायत्री के सामने खड़ा हो गया। महरियाँ बाग में झूल रही थी। भादों का महीना था, घटा छाई थी, कजली बहुत सुहानी लगती थी।
गायत्री ने माया को सिर से पाँव तक देख कर कहा– तुम जानते हो कि किसके लड़के हो?
माया ने कुतूहल से कहा– इतना भी नहीं जानता?
गायत्री– मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहती हूँ जिससे मुझे मालूम हो जाय कि तुम मुझे क्या समझते हो?
माया पहले इस प्रश्न का आशय न समझता था। इतना इशारा पाकर सचेत हो गया।
बोला– पहले लाला ज्ञानशंकर का लड़का था, अब आपका लड़का हूँ।
गायत्री– इसीलिए तुम्हें प्रत्येक विषय में ईश्वर के पीछे मेरी इच्छा को मान्य समझना चाहिए।
माया– निस्सन्देह।
गायत्री– बाबू ज्ञानशंकर को तुम्हारे पालन-पोषण, दीक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह मेरा अधिकार है।
माया– आपके ताकीद की जरूरत नहीं, मैं स्वयं उनसे दूर रहना चाहता हूँ। जब से मैंने अम्माँ को अन्तिम समय उनकी सूरत, देखते ही चीख कर भागते देखा तभी से उनका सम्मान मेरे हृदय से उठ गया।
गायत्री– तो तुम उससे कहीं ज्यादा चतुर हो जितना मैं समझती थी। आज बद्रीनाथ की यात्रा करने जा रही हूँ। कुछ पता नहीं कब तक लौटूँ। मैं समझती हूँ कि तुम्हें बाबू प्रेमशंकर की निगरानी में रखूँ। यह मेरी आज्ञा है कि तुम उन्हें अपना पिता समझो और उनके अनुगामी बनो। मैंने उनके नाम यह पत्र लिखा दिया है! इसे लेकर तुम उनके पास जाओ। वह तुम्हारी शिक्षा की उचित व्यवस्था कर देंगे। तुम्हारी स्थिति के अनुसार तुम्हारे आराम और जरूरत की आयोजना भी करेंगे। तुमको थोड़े ही दिनों में ज्ञात हो जायेगा कि तुम अपने पिता से कहीं ज्यादा सुयोग्य हाथों में हो। संभव है कि लाला प्रेमशंकर को तुमसे उतना प्रेम न हो जितना तुम्हारे पिता को है, लेकिन इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि तुम्हें अपने आनेवाले कर्तव्यों का पालन करने के लिए जितनी क्षमता उनके द्वारा प्राप्त हो सकती है, तुम्हारे आचार-विचार और चरित्र का जैसा उत्तम संगठन वह कर सकते हैं कोई और नहीं कर सकता। मुझे आशा है कि वह इस भार को स्वीकार करेंगे। इसके लिए तुम और मैं दोनों ही उनके बाध्य होंगे। यह दूसरा पत्र मैंने बाबू ज्ञानशंकर को लिखा है। मेरे लौटने तक वह रियासत के मैनेजर होंगे। उन्हें ताकीद कर दी है कि बाबू प्रेमशंकर के पास प्रति मास दो हजार रुपये भेज दिया करें। यह पत्र डाकखाने भिजवा दो।
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