सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
शीलमणि– अब तो इस्तीफा दे कर आये हैं और बाबू प्रेमशंकर के साथ रहना चाहते हैं। उन्हें इन पर असीम भक्ति है। पहले जब इस्तीफा देने की चर्चा करते तो समझती थी कि काम से जी चुराते हैं। राजी न होती थी, लेकिन इन तीन वर्षों में मुझे अनुभव हो गया कि इस नौकरी के साथ आत्मरक्षा नहीं हो सकती। जाति के नेतागण प्रजा के उपकार के लिए जो उपाय करते हैं सरकार उसी में विघ्न डालती है, उसे दबाना चाहती है। उसे भय होता है कि कहीं यहाँ के लोग इतने उन्नत न हो जायें कि उसका रोब न मानें। इसीलिए वह प्रजा के भावों को दबाने के लिए, उसका मुँह बन्द करने को नये-नये कानून बनाती रहती है। नेताओं ने देश को दरिद्रता के चंगुल से छुड़ाने के लिए चरखों और करघों की व्यवस्था की। सरकार उसमें बाधा डाल रही है। स्वदेशी कपड़े का प्रचार करने के लिए दूकानदारों और ग्राहकों को समझाना अपराध ठहरा दिया गया है। नशे की चीजों का प्रचार कम करने के लिए नशेबाजों और ठेकेदारों से कुछ कहना-सुनना भी अपराध है। अभी पिछले सालों जब यूरोप की लड़ाई हुई थी तो सरकार ने प्रजा से कर्ज लिया। कहने को तो कर्ज था, पर असल में जरूरी टैक्स था। अधिकारियों ने दीन-दरिद्र प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये, तरह-तरह के दबाव डाले, यहाँ तक कि उन्हें अपने हल-बैल बेच कर सरकार को कर्ज देने पर मजबूर किया। जिसने इन्कार किया उसे या तो पिटवाया था कोई झूठा इलजाम लगा कर फँसा दिया। बाबूजी ने अपने इलाके में किसी के साथ सख्ती नहीं की। कह दिया, जिसका जी चाहे कर्ज दे, जिसका न जी चाहे न दे। नतीजा यह हुआ कि और इलाकों से तो लाखों रुपये वसूल हुए, इनके इलाके से बहुत कम मिला। इस पर जिले के हाकिम ने नाराज होकर शिकायत कर दी। इनसे यह ओहदा छीन लिया गया, दर्जा घटा दिया गया। जब मैंने यह हाल देखा तो आप ही जिद्द करके इस्तीफा दिलवा दिया। जब प्रजा की कमाई खाते हैं तो प्रजा के फायदे का ही काम करना चाहिए। यह क्या कि जिसकी कमाई खायें, उसी का गला दबायें। यह तो नमकहरामी है, घोर नीचता। यह तो वह करे जिसकी आत्मा मर गई हो, जिसे पेट पालने के सिवा लोक-परलोक की कुछ भी चिन्ता न हो। जिसके हृदय में जाति-प्रेम का लेशमात्र है वह ऐसे अन्याय नहीं कर सकता। भला तो होता है सरकार का, रोब और बल तो उसका बढ़ता है, जेब तो अंग्रेज व्यापारियों के भरते हैं और पाप के भागी होते हैं यह पेट के बन्दे नौकर, यह स्वार्थ के दास अधिकारी और फिर हमें नौकरी की परवाह ही क्या है। घर में खाने को बहुत है। दो-चार को खिलाकर खा सकते हैं। अब तो पक्का इरादा करके आये हैं कि यहीं बाबू प्रेमशंकर के साथ रहें और अपने से जहाँ तक हो सके प्रजा की भलाई करें। अब यह बताओ तुम कब तक रूठी रहोगी? क्या इसी तरह रो-रो कर उम्र काटने की ठान ली है?
श्रद्धा– प्रारब्ध में जो कुछ है उसे कौन मिटा सकता है?
शील– कुछ नहीं, यह तुम्हारी व्यर्थ की टेक है। मैं अबकी तुम्हें घसीट ले चलूँगी। उस उजाड़ में मुझसे अकेले न रहा जायेगा। हम और तुम दोनों रहेंगी तो सुख से दिन काटेंगे। अवसर पाते ही मैं उन महाशय की भी खबर लूँगी। संसार के लिए तो जान देते फिरते हैं और घरवालों की खबर नहीं लेते। जरा सा प्रायश्चित करने में क्या शान घटी जाती है?
श्रद्धा– तुम अभी उन्हें जानती नहीं हो। वह सब कुछ करेंगे पर प्रायश्चित न करेंगे। वह अपने सिद्धान्त को न तोड़ेंगे! तिस पर भी वह मेरी ओर से निश्चित नहीं हैं। ज्ञानशंकर जब से गोरखपुर रहने लगे तब से वह प्रायः रोज यहाँ एक बार आ जाते हैं। अगर काम पड़े तो उन्हें यहाँ रहने में भी आपत्ति न होगी, लेकिन अपने नियम उन्हें प्राणों से भी प्रिय हैं।
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