सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
जब अन्धेरा हुआ तो तेजशंकर घर में से एक तलवार निकाल लाया जिसे लालाजी ने हाल ही में जयपुर से मँगवाया था। दोनों ने कमरे का द्वार बन्द कर उसे मिट्टी के तेल से खूब साफ किया, तब उसे पत्थर पर रगड़ा, यहाँ तक कि उसमें से चिनगारियाँ निकलने लगीं। तब उसे बिछावन के नीचे छिपाकर दोनों बाजार की सैर करने निकल गये। लौटे तो नौ बज गये थे। बड़ी बहू के बहुत अनुरोध करने पर दोनों ने कुछ सूक्ष्म भोजन किया और तब अपने कमरे में लोगों के निद्रा-मग्न हो जाने का इन्तजार करने लगे। ज्यों-ज्यों समय निकट आता था उनका आशादीपक भय-तिमिर में विलुप्त हो जाता था। इस समय उनकी दशा कुछ उस अपराधी की-सी जिसकी फाँसी का समय प्रति क्षण निकट आता जाता हो। भाँति-भाँति की शंकाए और दुष्कल्पनाएँ उठ रही थीं, किन्तु इस आँधी और तूफान में भी एक नौका का स्पष्ट चिह्न दूर से दिखायी देता था जिससे उनकी हिम्मत बँध जाती थी। तेजशंकर चिन्तित और गम्भीर था और पद्यशंकर की सरल, आशामय बातों का जवाब तक न देता था।
निश्चित समय आ पहुँचा तो दोनों घर से निकले। माघ का महीना, तुषारवेष्टित वायु हड्डियों में चुभती थी। हाथ-पाँव अकड़े जाते थे। तेजशंकर ने तलवार को अपनी चादर के नीचे छिपा लिया और दोनों चले, जैसे कोई मन्द-बुद्धि बालक परीक्षा भवन की ओर चले। पग-पग पर वे शंका-विह्वल होकर ठिठक जाते, फिर कलेजा मजबूत करके आगे बढ़ते। यहाँ तक कि कई बार उन्होंने लौटने का इरादा किया, लेकिन उन्तालीस दिन की तपस्या के बाद वरदान मिलने के दिन हिम्मत हार जाना अक्षम्य दुर्बलता और भीरुता थी। अब तो चाहे जो हो, यह अन्तिम परीक्षा अनिवार्य थी। इस तरह डरते, हिचकते दोनों घाट पर पहुँच गये। रास्ते में किसी के मुँह से एक शब्द भी न निकला।
अमावस की रात थी। आँखों का होना-न-होना बराबर था। तारागण भी बादलों में मुँह छिपाये हुए थे। अन्धकार ने जल और बालू, पृथ्वी और आकाश को समान कर दिया था। केवल जल की मधुर-ध्वनि गंगा का पता देती थी। ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था कि जल-नाद भी उसमें निमग्न हो जाता था। ऐसा जान पड़ता था कि पृथ्वी अभी शून्य के गर्भ में पड़ी हुई है। अनन्त जीवन के दोनों आराधक पग-पग पर ठोकरें खाते, शंका-रचित बाधाओं से पग-पग पर चौंकते नदी के किनारे पहुँचे और नग्न होकर जल में उतरे। पानी बर्फ हो रहा था। उनके सारे अंग शिथिल हो गये। स्नान करके दोनों रेत पर बैठ गये और मन्त्र का जाप करने लगे। लेकिन आश्चर्य यह था कि आज उन्हें कोई ऐसा दृश्य न दिखायी दिया जिसे वे देख न चुके हों, न कोई ऐसी आवाजें सुनाई दीं जो वे सुन न चुके हों। कोई असाधारण घटना न हुई। सरदी ने शंकाओं को भी शान्त कर दिया था। विषम कल्पनाएँ भी निर्जीव हो गयी थीं। दोनों डर रहे थे कि आज न जाने कैसी-कैसी विकराल मूर्तियाँ दिखायी देंगी, प्रेतगण न जाने किन मन्त्रों से आघात करेंगे? न जाने प्राण बचेंगे या जायेंगे? लेकिन आज और दिनों से भी सस्ते छूट गये।
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