सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
जब रात समाप्त हो गयी और दोनों साधकों ने आँखें खोली तब आकाश पर उषा की लालिमा दिखायी दी। पृथ्वी शनैः-शनैः तिमिर-तट से निकलने लगी। उस पार के वृक्ष और रेत व्यक्त हो गये जैसे किसी मुर्च्छित रोगी के मुख पर चैतन्य का विकास हो रहा हो। श्यामल जल वेग से बह रहा था, मानो अन्धकार को अपने साथ बहाये लिये जाता हो। उस पार के वृक्ष इस तरह सिर झुकाये खड़े थे, मानो शोक समाज किसी की दाह-क्रिया करके शोक से सिर झुकाये चला जाता है।
सहसा तेजशंकर उठ खड़ा हुआ और बोला– जय भैरव की।
दोनों के नेत्रों में एक अलौकिक प्रकाश था, दोनों के मुखों पर एक अद्भुत प्रतिभा झलक रही थी।
तेजशंकर– तलवार हाथ में लो, मैं सिर झुकाये हुए हूँ।
पद्य– नहीं, पहले तुम चलाओ मैं सिर झुकाता हूँ।
तेज– क्या अब भी डरते हो? हमने मौत को कुचल दिया काल को जीत लिया, अब हम अमर हैं।
पद्य– क्या, पहले तुम ही श्रीगणेश करो। ऐसा हाथ चलाना कि एक ही वार में गर्दन अलग जा गिरे। मगर यह तो बताओ दर्द तो न होगा?
तेज– कैसा दर्द? ऐसा जान पड़ेगा जैसे किसी ने फूल से मारा हो। इसी से तो कहता हूँ कि पहले तुम शुरू करो।
पद्य– नहीं, पहले मैं सिर झुकाता हूँ।
तेजशंकर ने तलवार हाथ में ली, उसे तौला, दो-तीन बार पैंतरे बदले और तब जय भैरव की कहकर पद्यशंकर की गर्दन पर तलवार चलायी। हाथ भरपूर पड़ा; तलवार तेज थीं, सिर धड़ से अलग जा गिरा रक्त का फौवारा छूटने लगा। तेजशंकर खड़ा मुस्कुरा रहा था, मानो कोई फुलझड़ी छूट रही हो। उसके चेहरे पर तेजोमय शान्ति छायी हुई थी। कोई शिकारी भी पक्षी को भूमि पर तड़पते देखकर इतना अविचलित न रहता होगा। कोई अभ्यस्त बधिक भी पशु गर्दन पर तलवार चला कर इतना स्थिर-चित्त न रह सकता होगा। वह ऐसे सुदृढ़ विश्वास के भाव से खड़ा था जैसे कोई कबूतरबाज अपने कबूतर को उड़ा कर उसके लौट आने की राह देख रहा हो।
लाश कुछ देर तक तड़पती रही, इसके बाद शिथिल हो गयी। खून के छींटे बन्द हो गये, केवल एक-एक बूँद टपक रही थी जैसे पानी बरसने के बाद ओरी टपकती है, किन्तु पुनरुज्जवीन के संसार का कोई लक्षण न दिखायी दिया। एक मिनट और गुजरा। तेजशंकर को कुछ भ्रम हुआ, पर विश्वास ने उसे शान्त कर दिया। उसने गंगाजल चुल्लू में लेकर भैरव मन्त्र पढ़ा और उस पर एक फूँक मार कर उसे लाश पर छिड़क दिया; किन्तु यह क्रिया भी असफल हुई। उस कटे हुए सिर में कोई गति नहीं हुई उस मृत देह में स्फूर्ति का कोई चिह्न न दिखायी दिया। मन्त्र की जीवन-संचारिणी शक्ति का कुछ असर न हुआ।
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