सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
अब तेजशंकर को शंका होने लगी, विश्वास की नींव हिलने लगी। उस पुस्तक में स्पष्ट लिखा था कि सिर गर्दन से अलग होते ही तुरन्त उसमें चिमट जाता है और यदि इस क्रिया में कुछ विलम्ब हो तो भैरव मन्त्र से फूँके हुए पानी का एक चुल्लू काफी है। यहाँ इतनी देर हो गयी और अभी तक कुछ भी असर न हुआ। यह बात क्या है? मगर यह असम्भव है कि मन्त्र निष्फल हो। कितने लोगों ने इस मन्त्र को सिद्ध किया है। नहीं, घबराने की कोई बात नहीं, अभी जान आयी जाती है।
उसने तीन-चार मिनट तक और इन्तजार किया, पर लाश ज्यों की त्यों शान्तशिथिल पड़ी हुई थी। तब उसने फिर गंगाजल छिड़का, फिर मन्त्र पढ़ा लाश न उठी। उसने चिल्लाकर कहा– हा ईश्वर! अब क्या करूँ? विश्वास का दीपक बुझ गया। उसने निराश भाव से नदी की ओर देखा। लहरें दहाढे़ मार-मार कर रोती हुई जान पड़ी। वृक्ष शोक से सिर धुनते हुए मालूम हुए। उसके कण्ठ से बलात् क्रन्दन ध्वनि निकल आयी, वह चीख मार कर रोने लगा। अब उसे ज्ञान हुआ कि मैंने कैसे घोर अनर्थ किया। अनन्त जीवन की सिद्धि कितनी उदभ्रांत, कितनी मिथ्या थी। हा! मैं कितना अन्धा, कितना मन्द बुद्धि, कितना उद्दण्ड हूँ। हा! प्राणों से प्यारे पद्य, मैंने मिथ्या भक्ति की धुन में अपने ही हाथों से, इन्हीं निर्दय हाथों से, तुम्हारी गर्दन पर तलवार चलायी। हा! मैंने तुम्हारे प्राण लिये! मुझ सा पापी और अभागा कौन होगा? अब कौन सा मुँह लेकर घर जाऊँ? कौन सा मुँह दुनिया को दिखाऊँ? अब जीवन वृथा है। तुम मुझे प्राणों से भी प्यारे थे। अब तुम्हें कैसे देखूँगा, तुम्हें कैसे पाऊँगा?
तेजशंकर कई मिनट तक इन्हीं शोकमय विचारों से विह्वल हो कर खड़ा रोता रहा। अभी एक क्षण पहले उसके दिल में क्या-क्या इरादे थे, कैसी-कैसी अभिलाषाएँ थीं? वह सब इरादे मिट्टी में मिल गये? आह? जिस धूर्त पापी ने, यह किताब लिखी है उसे पाता तो इसी तलवार से उसकी गर्दन काट लेता, उसके भ्रम जाल में पड़कर मैंने अपना सर्वनाश किया!
हाय! अभी तक लाश में जान नहीं आयी। उसे उसकी ओर ताकते हुए अब भय होता था।
नैराश्य-व्यथा, शोकाघात, परिणाम-भय, प्रेमोद्गार, ग्लानि– इन सभी भावों ने उसके हृदय को कुचल दिया!
तिस पर भी अभी तक उसकी आशाओं का प्राणान्त न हुआ था। उसने एक बार डरते-डरते कनखियों से लाश को देखा, पर अब भी उसमें प्राण-प्रवेश का चिह्न न दिखायी दिया तो आशाओं का अन्तिम सूत्र भी टूट गया, धैर्य ने साथ छोड़ दिया।
उसने एक बार निराश होकर आकाश की ओर देखा। भाई की लाश पर अन्तिम दृष्टि डाली तब सँभल कर बैठ गया और वही तलवार अपने गले पर फेर दी। रक्त की फुवारें छुटीं, शरीर तड़पने लगा, पुतलियाँ फैल गयीं। बलिदान पूरा हो गया। मिथ्या विश्वास ने दो लहलहाते हुए जीव-पुष्पों को पैर से मसल दिया!
सूर्य देव अपने आरक्त नेत्रों से यह विषम माया लीला देख रहे थे। उसकी नीरव पीत किरणें उन दोनों मन्त्राहत बालकों पर इस भाँति पड़ रही थी मानों कोई शोक-विह्वल प्राणी से लिपट कर रो रहा हो।
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