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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


मुंशी जी बोले– हुजूर, इस बारे में सरकारी कायदे बड़े सख्त हैं। पुलिस के मुलाजिम को कोई दूसरा काम करने का मजाल नहीं है। अगर हम लोग कोई काम करने लगें तो निकाल दिये जायें।

प्रिय– यह आपकी गलती है। आपको फुर्सत के वक्त कपड़े बुनने या सूत कातने या कपड़े सीने से कोई नहीं रोक सकता। हाँ, सरकारी काम में हर्ज न होना चाहिए। आप लोगों को अपनी हालत हाकिमों से कहनी चाहिए।

मुंशी– हजूर, कोई सुननेवाला भी तो हो? हमारा रिआया को लूटना हुक्काम की निगाह में इतना बड़ा जुर्म है, जितना कुछ अर्ज-मारूज करना। फौरन साजिश और गरोहबन्दी का इलजाम लग जाय।

प्रिय– इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि आप लोग कोई हुनर सीख कर आजादी से रोजी कमाते। मामूली कारीगर भी आप लोगों से ज्यादा कमा लेता है।

मुंशी– हुजूर, यह तकदीर का मुआमला है। जिसके मुकद्दर में गुलामी लिखी हो, वह आजाद कैसे हो सकता है।

दोपहर हो गयी थी, प्रियनाथ ने दूसरी खुराक दवा दी। इतने में महाराज ने आकर कहा– सरकार, रसोई तैयार है, भोजन कर लीजिए। प्रेमशंकर यहाँ से उठना न चाहते थे, लेकिन प्रियनाथ ने उन्हें इत्मीनान दिला कर कहा– चाहे अभी जाहिर न हो, पर पहली खुराक का कुछ न कुछ असर हुआ है। आप देख लीजिएगा शाम तक यह होश-हवास की बातें करने लगेंगे।

दोनों आदमी भोजन करने गये। महाराज ने खूब मसालेदार भोजन बनाया था। दयाशंकर चटपटे भोजन के आदी थे। सब चीजें इतनी कड़वी थीं कि प्रेमशंकर दो-चार कौर से अधिक न खा सके। आँख और नाक से पानी बहने लगा। प्रियनाथ ने हँसकर कहा– आपकी तो खूब दावत हो गयी। महाराज ने तो मदरासियी को भी मात कर दिया। यह उत्तेजक मसाले पाचन-शक्ति को निर्बल कर देते है। देखों महाराज, जब तक दारोगाजी अच्छे न हो जायँ ऐसी चीजें उन्हें न खिलाना, मसाले बिलकुल न डालना।

महाराज– हुजूर, मैंने तो आज बहुत कम मसाले दिये हैं। दारोगीजी के सामने यह भोजन जाता तो कहते यह क्या फीकी-पीच पकाई है।

प्रेमशंकर ने रूखे चावल खाये, मगर प्रियनाथ ने मिरचा की परवाह नहीं की। दोनों आदमी भोजन करके फिर दयाशंकर के पास जा बैठे। तीन बजे प्रियनाथ ने अपने हाथों से उसकी छाती में एक अर्क की मालिश की और शाम तक दो बार और दवा दी। दयाशंकर अभी तक चुपचाप पड़े हुए थे, पर मूर्च्छा नहीं, नींद थी। उनकी श्वास-क्रिया स्वाभाविक होती जाती थी और मुख की विवर्णता मिटती जाती थी। जब अँधेरा हुआ तो प्रियनाथ ने कहा, अब मुझे आज्ञा दीजिए। ईश्वर ने चाहा तो रात भर में इनकी दशा बहुत अच्छी हो जायेगी। अब भय की कोई बात नहीं है। मैं कल आठ बजे तक फिर आऊँगा। सहसा दयाशंकर जागे, उनकी आँखों में अब वह चंचलता न थी। प्रियनाथ ने पूछा, अब कैसी तबयित है?

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