सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
दया– ऐसा जान पड़ता है कि किसी ने जलती हुई रेत से उठकर वृक्ष की छाँह में लिटा दिया हो।
प्रिय– कुछ भूख मालूम होती है?
दया– जी नहीं, प्यास लगी है।
प्रिय– तो आप थोड़ा-सा गर्म दूध पी लें। मैं इस वक्त जाता हूँ। कल आठ बजे तक आ जाऊँगा।
दयाशंकर ने मुंशी जी की तरफ देखकर कहा– मेरा सन्दूक खोलिए और उसमें से जो कुछ हो लाकर डॉक्टर साहब के पैरों पर रख दीजिए। बाबूजी, यह रकम कुछ नहीं है, पर आप इसे कबूल करें।
प्रिय– अभी आप चंगे तो हो जायँ, मेरा हिसाब फिर हो जायगा।
दया– मैं चंगा हो गया, मौत के मुँह से निकल आया। कल तक मरने का ही जी चाहता था, लेकिन अब जीने की इच्छा है। यह फीस नहीं। मैं आपको फीस देने के लायक नहीं हूँ। दैहिक रोग-निवृत्ति की फीस हो सकती है, लेकिन मुझे ज्ञात हो रहा है कि आपने आत्मिक उद्धार कर दिया है। इसकी फीस वह एहसान है, जो जीवन-पर्यन्त मेरे सिर पर रहेगा और ईश्वर ने चाहा तो आपको इस पापी जीवन को मौत के पंजे से बचा लेने का दुःख न होगा?
प्रियनाथ ने फीस न ली, चले गये। प्रेमशंकर थोड़ी देर बैठे रहे। जब दयाशंकर दूध पी कर फिर सो गये तब वह बाहर निकल कर टहलने लगे। अकस्मात् उन्हें लाला प्रभाशंकर एक्के पर आते हुए दिखाई दिये। निकट आते ही वह एक्के से उतर और कम्पित स्वर से बोले– बेटा, बताओ दयाशंकर की क्या हालत है? तुम्हारे चले आने के बाद यहाँ से एक चौकीदार मेरे पास पहुँचा। उसने कुछ ऐसी बुरी खबर सुनाई कि होश उड़ गये, उसी वक्त चल खड़ा हुआ। घर में हाहाकर मचा हुआ है। सच-सच बताओ, बेटा क्या हाल है!
प्रेम– अब तो तबियत बहुत कुछ सँभल गयी है, कोई चिन्ता की बात नहीं, पर जब मैं आया था तो वास्तव में हालत खराब थी। खैरियत यह हो गयी कि डाक्टर प्रियनाथ आ गये। उनकी दवा ने जादू का सा असर किया। अब सो रहे हैं।
प्रभा– बेटा, चलो, जरा देख लूँ चित्त बहुत व्याकुल है।
प्रेम– आपको देख कर शायद वह रोने लगे।
प्रभाशंकर ने बड़ी नम्रता से कहा– बेटा, मैं जरा भी न बोलूँगा, बस, एक आँख देख कर चला जाऊँगा। जी बहुत घबराया हुआ है।
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