सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
किन्तु अपनी मूक, दीन प्रजा के साथ उनका बर्ताव इतना सदय न था। उन वृक्षों में काँटे न थे, इसलिए उनके फल तोड़ने में कोई बाधा न थी। असामियों पर अखराज, बकाया और इजाफे की नालिशें धूम से हो रही थीं, उनके पट्टे बदले जा रहे थे और नजराने बड़ी कठोरता से वसूल किये जा रहे थे। राय साहब ने रियासत पर पाँच लाख का ऋण छोड़ा था। उस पर लगभग २५ हजार वार्षिक ब्याज होता था। ज्ञानशंकर ने इन प्रयत्नों से सूद की पूर्ति कर ली। इतने अत्याचार पर भी प्रजा उनसे असन्तुष्ट न थी। वह कड़वी दवाएँ मीठी करके पिलाते थे। गायत्री की बरसी में उन्होंने असामियों को एक हजार कम्बल बाँटे और ब्राह्मणों को भोज दिया। इसी तरह राय साहब के इलाके में होली के दिन जलसे कराये और भोले-भाले असामियों को भर पेट भंग पिला कर मुग्ध कर दिया। कई जगह मंडियाँ लगवा दीं जिससे कृषकों को अपनी जिन्सें बेचने में सुविधा हो गयी और सियासत को भी अच्छा लाभ होने लगा।
इस तरह दो साल गुजर गये। ज्ञानशंकर का सौभाग्य-सूर्य अब मध्याह्न पर था। राय साहब के ऋण से वह बहुत कुछ मुक्त हो चुके थे। हाकिमों में मान था, रईसों में प्रतिष्ठा थी, विद्वज्जनों में आदर था, मर्मज्ञ लेखक थे, कुशल वक्ता थे। सुख-भोग की सब सामग्रियाँ प्राप्त थीं। जीवन की महत्त्वकांक्षाएँ पूरी हो गयी थी। वह जब कभी अवकाश के समय अपनी गत अवस्था पर विचार करते तब अपनी सफलता पर आश्चर्य होता था। मैं क्या से क्या हो गया? अभी तीन ही साल पहले मैं एक हजार सालाना नफे के लिए सारे गाँव को फाँसी पर चढ़वा देना चाहता था। तब मेरी दृष्टि कितनी संकीर्ण थी। एक तुच्छ बात के लिए चचा से अलग हो गया, यहाँ तक कि अपने सगे भाई का भी अहित सोचता था। उन्हें फँसाने में कोई बात उठा नहीं रखी। पर अब ऐसी कितनी रकमें दान कर देता हूँ। कहाँ एक ताँगा रखने की सामर्थ्य न थीं, कहाँ अब मोटरें मँगनी दिया करता हूँ। निस्सन्देह इस सफलता के लिए मुझे स्वाँग भरने पड़े, हाथ रँगने पड़े, पाप, छल, कपट सब कुछ करने पड़े, किन्तु अँधेरे में खोह में उतरे बिना अनमोल रत्न कहाँ मिलते हैं? लेकिन इसे अपना ही कृत्यों का फल समझना मेरी नितान्त भूल है। ईश्वरीय व्यवस्था न होती तो मेरी चाल कभी सीधी न पड़ती! उस समय तो ऐसा जान पड़ता था, कि पाँसा पलट पड़ा। वार खाली गया, लेकिन सौभाग्य से उन्हीं खाली वारों ने, उल्टी चालों ने बाजी जिता दी।
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