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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्ञानशंकर दूसरे-तीसरे महीने बनारस अवश्य जाते और प्रेमशंकर के पास रह कर सरल जीवन का आनन्द उठाते। उन्होंने प्रेमशंकर से कितनी ही बार साग्रह कहा कि अब आपको इस उजाड़ में झोंपड़ा बना कर रहने की क्या जरूरत है? चल कर घर पर रहिए और ईश्वर की दी हुई संपत्ति भोगिए। यह मंजूर न हो तो मेरे साथ चलिये। हजार-दो-हजार बीघे चक दे दूँ, वहाँ दिल खोल कर कृषक जीवन का आनन्द उठाइए, लेकिन प्रेमशंकर कहते, मेरे लिए इतना ही काफी है, ज्यादा की जरूरत नहीं। हाँ, इस अनुरोध का इतना फल अवश्य हुआ कि वह अपनी जोत को बढ़ाने पर राजी हो गये। उनके डाँड़ से मिली हुई पचास बीघे जमीन एक दूसरे ज़मींदार की थी। उन्होंने उसका पट्टा लिखा लिया और फूस के झोंपड़े की जगह खपरैल के मकान बनवा लिये। ज्ञानशंकर उनसे यह सब प्रस्ताव करते थे, पर उनके संतोषमय, सरल, निर्विरोध जीवन के महत्त्व से अनभिज्ञ थे। नाना प्रकार की चिंताओं और बाधाओं में ग्रस्त रहने के बाद वहाँ के शान्तिमय, निर्विघ्न विश्राम में उनका चित्त प्रफुल्लित हो जाता था। यहाँ से जाने को जी न चाहता था। यह स्थान अब पहले की तरह न था, जहाँ केवल एक आदमी साधुओं की भाँति अपनी कुटी में पड़ा रहता हो। अब वह एक छोटी सी गुलजार बस्ती थी, जहाँ नित्य राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर सम्वाद होते थे और जीवन-मरण के गूँढ़ जटिल प्रश्नों की मीमांसा की जाती थी! यह विद्वज्जनों की एक छोटी सी संगत थी, विद्वानों के पक्षपात और अहंकार से मुक्त। वास्तव में यह सारल्य, संतोष और सुविचार की तपोभूमि थी। यहाँ न ईर्ष्या का सन्ताप था, न लोभ का उन्माद, न तृष्णा का प्रकोप। यहाँ धन की पूजा न होती थी और न दीनता पैरों तले कुचली जाती थी। यहाँ न एक गद्दी लगा कर बैठता था और न दूसरा अपराधियों की भाँति उनके सामने हाथ बाँध कर खड़ा होता था। यहाँ स्वामी की घुड़कियाँ न थीं न सेवक की दीन ठकुर-सोहातियाँ। यहाँ सब एक दूसरे के सेवक, एक दूसरे के मित्र और हितैषी थे। एक तरफ डॉक्टर इर्फान अली का सुन्दर बँगला था फूलों और लताओं से सजा हुआ। डॉक्टर साहब अब केवल वही मुकदमे लेते थे जिनके सच्चे होने का उन्हें विश्वास होता था और उतना ही पारिश्रमिक लेते थे जितना खर्च के लिए आवश्यक हो। संचय और संग्रह की चिंताओं से निवृत्त हो गये थे। शाम-सवेरे वह प्रेमशंकर के साथ बागवानी करते थे, जिसका उन्हें पहले से ही शौक था। पहले गमलों में लगे हुए पौधों को देखकर खुश होते थे, काम माली करता था। अब सारा काम अपने ही हाथों करते थे। उनके बँगले से मिला हुआ डॉक्टर प्रियनाथ का मकान था। मकान के सामने एक औषधालय था। अब वे प्रायः देहातों में घूम-घूम कर रोगियों का कष्ट निवारण करते थे नौकरी छोड़ दी थी। जीविका के लिए एक गौशाला खोल ली थी जिसमें कई पछाहीं गायें-भैंसे थी। दूध-मक्खन बिकने के लिए शहर चला आता था। रोगियों से कुछ फीस न लेते थे। बाबू ज्वालासिंह और प्रेमशंकर एक ही मकान में रहते थे। श्रद्धा और शीलमणि में खूब बनती थी। घर के कामों से फुरसत पाते ही दोनों चरखे पर बैठ जाती थीं। या मोजे बुनने लगती थीं। प्रेमशंकर नियमानुसार खेत में काम करते थे और ज्वालासिंह नये प्रकार के करघों पर आप कपड़े बुनते थे और हाजीपुर के कई युवकों को बुनना सिखाते थे। इस कला में वह बहुत निपुण हो गये थे। सैयद ईजाद हुसेन ने भी यहीं अड्डा जमाया। उनका परिवार अब भी शहर में ही रहता था, पर यह यतीमखाना यहीं उठ आया था। उसमें अब नकली नहीं, सच्चे यतीमों का पालन-पोषण होता था। सैयद साहब अपना ‘इत्तहाद’ अब भी निकालते थे और ‘इत्तहाद’ पर अपने व्याख्यान देते थे, लेकिन चन्दे न वसूल करते थे और न स्वाँग भरते थे। वह अब हिन्दू-मुसलिम एकता के सच्चे प्रचारक थे। यतीमखाने के समीप ही मायाशंकर का मित्र भवन था। यह एक छोटा सा छात्रालय था। इसमें इर्फान अली के दो लड़के, प्रियनाथ के तीनों लड़के, दुर्गा माली का एक लड़का और मस्ता का एक छोटा भाई साथ-साथ रहते थे। सब साथ-साथ पाठशाला को जाते और साथ-साथ भोजन करते। उनका सब खर्च मायाशंकर अपने वजीफे से देता था। भोजन श्रद्धा पकाती थी। ज्ञानशंकर ने कई बार चाहा कि माया को ले जाकर लखनऊ के ताल्लुकेदार स्कूल में दाखिल करा दें लेकिन वह राजी न होता था।

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