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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


एक बार ज्ञानशंकर लखनऊ से आये तो माया के वास्ते एक बहुत सुन्दर रेशमी सूट सिला लाये, लेकिन माया ने उसको उस वक्त तक न पहना जब तक मित्र-भवन के और छात्रों के लिए वैसे ही सूट न तैयार हो गये। ज्ञानशंकर मन में बहुत लज्जित हुए और बहुत जब्त करने पर भी उनके मुँह से इतना निकल ही गया, भाई साहब, मैं इस साम्य-सिद्धान्त पर आपसे सहमत नहीं हूँ। यह एक अस्वाभाविक सिद्धान्त है। सिद्धान्त रूप से हम चाहे इसकी कितनी प्रशंसा करें पर इसका व्यवहार में लाना असंभव है। मैं यूरोप के कितने ही साम्यवादियों को जानता हूँ जो अमीरों की भाँति रहते हैं, मोटरों पर सैर करते हैं और साल में छह महीने इटली या फ्रांस में विहार किया करते हैं। जब वह अपने को साम्यवादी कह सकते हैं तो कोई कारण नहीं है कि हम इस अस्वाभाविक नीति पर जान दें।

प्रेमशंकर ने विनीत भाव से कहा– यहाँ साम्यवाद की तो कभी चर्चा नहीं हुई है।

ज्ञान– तो फिर यहाँ के जलवायु में यह असर होगा। यद्यपि मुझे इस विषय में आपसे कुछ कहने का अधिकार नहीं है पर पिता के नाते मैं। इतना कहने की क्षमा चाहता हूँ कि ऐसी शिक्षा का फल माया के लिए हितकर न होगा।

प्रेम– अगर तुम चाहो और माया की इच्छा हो तो उसे लखनऊ ले जाओ, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यहाँ के जलवायु को बदलना मेरे वश की बात नहीं।

ज्ञान– यह तो आप जानते हैं कि माया और उसके साथियों की स्थिति में कितना अन्तर है।

प्रेमशंकर ने गम्भीरता से कहा– हाँ, खूब जानता हूँ, पर यह नहीं जानता कि इस अन्तर को प्रदर्शित क्यों किया जाये। मायाशंकर थोड़े दिनों में एक बड़ा इलाकेदार होगा, यह सब लड़कों को मालूम है। क्या यह बात उन्हें अपने दुर्भाग्य पर रुलाने के लिए काफी नहीं है कि इस विभिन्नता का स्वाँग दिखा कर उन्हें और भी चोट पहुँचायी जाय? तुम्हें मालूम न होगा, पर मैं यह विश्वस्त रूप से कहता हूँ कि तेजू और पद्यू का बलिदान माया के गोद लिए जाने के ही कारण हुआ। माया को अचानक इस रूप में देखकर सिद्धि प्राप्त करने की प्रेरणा हुई। माया डींगे मार-मार कर उनकी लालसा को और भी उत्तेजित करता रहा और उसका यह भयंकर परिणाम हुआ...

इतने में माया आ गया और प्रेमशंकर को अपनी बात अधूरी छोड़नी पड़ी। ज्ञानशंकर भी अन्यमनस्क हो कर वहाँ से उठ गये।

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