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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


भोला– हजार दो हजार से काम चले तो मेरे पास हैं, ले लीजिए। ज्यादा की जरूरत हो तो कोई और उपाय करूँ।

प्रेम– हजार दो हजार का तुम क्या प्रबन्ध करोगे? तुम्हारे पास तो हैं नहीं, किसी से लेने ही पड़ेंगे।

भोला– नहीं बाबूजी, आपकी दुआ से अब इतने फटेहाल नहीं हैं। हजार से कुछ ऊपर तो अपने ही हैं। एक हजार मस्ता ने रखने को दिये हैं। दुर्गा और दमड़ी भी कुछ रुपये रखने को देते थे, पर मैंने नहीं लिये। पराये रुपये घर में रख कर कौन जंजाल पाले? कहीं कुछ हो जाय तो लोग समझेंगे इसने खा लिए होंगे।

प्रेम– तुम लोगों के पास इतने रुपये कहाँ से आ गये?

भोला– आप ही ने दिये हैं, और कहाँ से आये? जवानी की कसम खा कर कहता हूँ कि इधर तीन साल से एक दिन भी कौड़ी हाथ से छुई हो या दारू मुँह से लगायी हो। आप लोगों जैसे भले आदमियों के साथ रह कर ऐसे कुकर्म करता तो कौन मुँह दिखाता? मस्ता के बारे में भी कह सकता हूँ कि इधर दो-ढाई साल से किसी के माल की तरफ आँख उठा कर नहीं देखा। अभी थोड़े ही दिनों की बात है, भवानी सिंह की अंटी से पाँच गिन्नियाँ गिर गयी थीं। मस्ता ने खेत में पड़ी पायीं और उसी दिन जा कर उन्हें दे आया। पहले इस बगीचे से फल-फलारी तोड़ कर बेच लिया करता था, पर अब यह सारी आदतें छूट गयीं। दुर्गा और दमड़ी गाँजा-चरस तो पीते हैं, लेकिन बहुत कम और मैंने उन्हें कोई कुचाल चलते नहीं देखा हम अभी रोटी, दाल, तरकारी खा कर दो-तीन सौ रुपये बचा लेते हैं। तो कहिए, जितने रुपये मेरे पास हैं वह लाऊँ?

प्रेम– यह सुन कर मुझे बड़ी खुशी हुई कि तुम लोग भी चार पैसे के आदमी हो गये। यह सब तुम्हारे सुविचार का फल है। लेकिन मेरा काम इतने रुपये में न चलेगा। मुझे पच्चीस हजार की जरूरत है।

सहसा मायाशंकर आ कर खड़ा हो गया। उसकी आँखें डबडबायी हुई थीं और मुँह पर करुण उत्सुकता झलक रही थी। प्रेमशंकर ने भोला को आँखों के इशारे से हटा दिया तब माया से बोले– आँखें क्यों भरी हुई हैं? बैठो।

माया– जी, कुछ नहीं। अभी तेजू और पद्यू की याद आ रही थी। दोनों अब तक होते तो उन्हें यहीं बुला कर रखता। उस समय मैं बड़ा निर्दयी था। बेचारों को अपना ठाट दिखा कर जलाना चाहता था। मेरी शेखी की बातें सुन-सुन वे भी कहा करते थे, हम वह मन्त्र जगायेंगे कि कोई मार ही न सके। ऐसे-ऐसे मन्त्रों को अपने वश में कर लेंगे कि घर बैठें संसार की जो वस्तु चाहें मँगा लेंगे! उस वक्त मेरी समझ में वे बात न आती थीं, दिल्लगी समझता था, पर अब तो उन बातों को याद करता हूँ तो ऐसा मालूम होता है कि मैं उनका घातक हूँ। चित्त व्याकुल हो जाता है और अपने ऊपर ऐसा क्रोध आता है कि क्या कहूँ! अभी बाबा से मिलने गया था। बहुत दुःखी थे। किसी महाजन ने उन पर नालिश भी कर दी। है, इससे और भी चिन्तित थे। अगर यह मुसीबत न आती तो शायद वह इतने दुःखी न होते। विपत्ति में शोक और भी दुस्सह हो जाता है। शोक का घाव भरना तो असम्भव है, पर इस नयी विपत्ति का निवारण हो सकता है। आपसे कहते हुए संकोच होता है, पर इस समय मुझे क्षमा कीजिये। चाचा दयाशंकर तो बाबा से कह रहे थे, हमें जमीन की परवाह नहीं है, निकल जाने दीजिए। आपको अब क्या करना है? मेरे सिर पर जो पड़ेगी, देख लूँगा, लेकिन बाबा की इच्छा यह थी कि महाजन से कुछ दिनों की मुहलत ली जाये। अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं जा कर बातचीत करूँ मुझसे वह कुछ दबेगा भी।

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