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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रेमशंकर– रुपयों की फिक्र तो मैं कर रहा हूँ, पर मालूम नहीं उन्हें कितने रुपयों की जरूरत है। उन्होंने मुझसे कभी यह जिक्र नहीं किया।

माया– बातचीत से मालूम होता था कि पन्द्रह-बीस हजार का मुआमला है।

प्रेम– यही मेरा अनुमान है। दो-चार दिन में कुछ न कुछ उपाय निकल ही आयेगा। या तो महाजन को समझा-बुझा दूँगा या दो-चार हजार दे कर कुछ दिन की मुहलत ले लूँगा।

माया– मैं चाहता हूँ कि बाबा को मालूम भी न होने पाये और महाजन के सब रुपये पहुँच जायें जिसमें यह झंझट न रहे। जब हमारे पास रुपये हैं तो फिर महाजन की खुशामद क्यों की जाय?

प्रेम– वह रुपये अमानत हैं। उन्हें छूने का अधिकार नहीं है। उन्हें मैंने तुम्हारी यूरोप-यात्रा के लिए अलग कर दिया है।

माया– मेरी यूरोप यात्रा इतनी आवश्यक नहीं है कि घरवालों को संकट में छोड़ कर चला जाऊँ।

प्रेम– जिस काम के लिए वह रुपये दिये गये हैं उसी काम में खर्च होने चाहिए।

माया मन में खिन्न हो कर चला गया, पर श्रद्धा से ढीठ हो गया था। उसके पास जा कर बोला– अगर चाचा साहब बाबा को रुपये न देंगे तो मैं यूरोप कदापि न जाऊँगा। तीस हजार ले कर मैं वहाँ क्या करूँगा! मेरे लिए चलते समय पाँच हजार काफी हैं। चाचा साहब से पचीस हजार दिला दो।

प्रेमशंकर ने श्रद्धा से भी वही बातें कहीं। श्रद्धा ने माया का पक्ष लिया। बहस होने लगी। कुछ निश्चय न हो सका। दूसरे दिन श्रद्धा ने फिर प्रश्न उठाया। आखिर जब उसने देखा कि यह दलीलों से हार जाने पर भी रुपये नहीं देना चाहते तो जरा गर्म होकर बोली– अगर तुमने दादाजी को रुपये न दिये तो माया कभी यूरोप न जायेगा।

प्रेम– वह मेरी बात को कभी नहीं टाल सकता है।

श्रद्धा– और बातों को नहीं टाल सकता। पर इस बात को हरगिज न मानेगा।

प्रेम– तुमने यह शिक्षा दी होगी।

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