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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


श्रद्धा ने कुछ जवाब न दिया। यह बात उसे लग गयी। एक क्षण तक चुपचाप बैठी रही। तब जाने के लिए उठी। प्रेमशंकर के मुँह से बात तो निकल गयी थी, पर अपनी कठोरता पर लज्जित थे। बोले– अगर ज्ञानशंकर कुछ आपत्ति करें तो?

श्रद्धा ने तिनक कर कहा– तो साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि ज्ञानशंकर के डर से नहीं देता। अधिकार, कर्त्तव्य और अमानत का आश्रय क्यों लेते हो?

प्रेमशंकर ने असमंजस में पड़ कर कहा– डर की बात नहीं है। रुपयों के विषय में मुझे पूरा अधिकार है, लेकिन ज्ञानशंकर की अनुमति के बिना मैं उसे इस तरह खर्च नहीं करना चाहता।

श्रद्धा– तो एक चिट्ठी लिख कर पूछ लो। मुझे तो पूरा विश्वास है कि उन्हें कोई आपत्ति न होगी। अब वह ज्ञानशंकर नहीं हैं जो पैसे-पैसे पर जान देते थे।

प्रेमशंकर बाहर आ कर ज्ञानशंकर को पत्र लिखने बैठे। लेकिन फिर ख्याल आया कि उन्होंने अनुमति दे दी तो अनुमति देने में उनकी क्या हानि है? तब मुझे विवश हो कर रुपये देने पड़ेंगे। यह रुपये न मेरे है, न ज्ञानशंकर के हैं। यह माया की शिक्षावृत्ति है। पत्र न लिखा। ज्वालासिंह के सामने यह समस्या पेश की। उन्होंने भी कुछ निश्चय न किया। डॉक्टर इर्फानअली से परामर्श लेने की ठहरी। डॉक्टर साहब ने फैसला किया कि यह रकम माया की शिक्षा के सिवा और किसी काम में नहीं खर्च की जा सकती।

मायाशंकर ने यह फैसला सुना तो झुँझला उठा। जी में आया कि चलकर डॉक्टर साहब से खूब बहस करूँ पर डरा कि कहीं वह इसे बेअदबी न समझें। क्यों न महाजन के पास जा कर वह सब रुपये माँग लूँ? अभी नाबालिक हूँ, शायद उसे कुछ आपत्ति हो, लेकिन एक के दो देने पर तैयार हो गया तो मुंह से तो चाहे कुछ न कहें, पर मन में बहुत नाराज होंगे। बेचारा इन्हीं दुश्चिन्ताओं में डूबा हुआ मलीन, उदास जाकर लेट रहा। सन्ध्या हो गयी पर कमरे से न निकला। डॉ. इर्फान अली ने पढ़ाने के लिए बुलाया। कहला भेजा, मेरे सिर में दर्द है। भोजन का समय आया। मित्र-भवन के और सब छात्र भोजन करने लगे। माया ने कहला भेजा, मेरे सिर में दर्द है। श्रद्धा बुलाने आयी। उसे देखते ही माया रो पड़ा।

श्रद्धा ने प्रेम से आँसू पोंछते हुए कहा– बेटा, चल कर थोड़ा सा खाना खा लो। सवेरे मैं फिर उनसे कहूँगी। डॉ. इर्फानअली ने बात बिगाड़ दी, नहीं तो मैंने तो राजी कर लिया था।

माया– चाची, मेरी खाने की बिलकुल इच्छा नहीं है। (रो कर) तेजू और पद्यू के प्राण मैंने लिए और अब मैं बाबा की कुछ मदद भी नहीं कर सकता। ऐसे जीने पर धिक्कार है।

श्रद्धा भी करुणावेग से विवश हो गयी। अंचल से माया के आँसू पोंछती थी और स्वयं रोती थी।

माया ने कहा– चाची, तुम नाहक हलाकान होती हो, मैं अभागा हूँ, मुझे रोने दो।

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