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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


श्रद्धा– तुम चल कर कुछ खा लो। मैं आज ही रात को यह बात छेड़ूँगी।

माया का चित्त बहुत खिन्न था, पर श्रद्धा की बात न टाल सका। दो-चार कौर खाये, पर ऐसा मालूम होता था कि कौर मुँह से निकला पड़ता है। हाथ-मुँह धो कर फिर अपने कमरे में लेट रहा।

सारी रात श्रद्धा यही सोचती रही कि इन्हें कैसे समझाऊँ। शीलमणि से भी सलाह ली, पर कोई युक्ति न सूझी।

प्रातःकाल बुधिया किसी काम से आई। बातों-बातों में कहने लगी– बहूजी, पैसा सब कोई देखता है, मेहनत कोई नहीं देखता। मर्द दिन भर में एक-दो रुपया कमा लाता है तो मिजाज ही नहीं मिलता, औरत बेचारी रात-दिन चूल्हे-चक्की में जुटी रहे, फिर भी वह निकम्मी ही समझी जाती है।

श्रद्धा सहसा उछल पड़ी। जैसे सुलगती हुई आग हवा पा कर भभक उठती है। उसी भाँति इन बातों ने उसे एक युक्ति सुझा दी। भटकते हुए पथिक को रास्ता मिल गया। कोई चीज जिसे घंटों से तलाश करते-करते थक गयी थी, अचानक मिल गयी। ज्यों ही बुधिया गयी, वह प्रेमशंकर के पास आ कर बोली– चाचाजी को रुपये देने के बारे में क्या निश्चय किया?

प्रेम– फिक्र में हूँ। दो-चार दिन में कोई सूरत निकल ही आयेगी।

श्रद्धा– रुपये तो रखे ही हैं।

प्रेम– मुझे खर्च करने का अधिकार नहीं है।

श्रद्धा– यह किसके रुपये हैं?

प्रेम– (विस्मित होकर) माया के शिक्षार्थ दिये गये हैं।

श्रद्धा– तो क्या २००० रुपये महीने खर्च नहीं होते हैं?

प्रेम– क्या तुम जानती नहीं? लगभग ८०० रुपये खर्च होते हैं, बाकी १२०० रुपये बचे रहते हैं।

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