सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
श्रद्धा– यह क्यों बचे रहते हैं? क्या यह तुम्हारी समझ में नहीं आता? डॉक्टर इर्फान अली को पढ़ने के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए? डॉ. प्रियनाथ और बाबू ज्वालासिंह को भी नौकर रखते तो कुछ न कुछ देना पड़ता। तुम्हारी मजूरी भी कुछ न कुछ होनी ही चाहिए। तुम्हारे विचार में इर्फानअली का वेतन कुछ होता ही नहीं? उनका एक दिन का मेहनताना ५०० रुपये न दोगे? प्रियनाथ की आमदनी १०० रुपये प्रति दिन से कम नहीं थी। पहले तो वह किसी के घर पढ़ाने जायें ही नहीं, जायें तो ५०० रुपये महीने से कम न लें। बाबू ज्वालासिंह भी १०० रुपये पर महँगे नहीं हैं। रहे तुम तुम्हारा भतीजा है, उसे शौक से प्रेम से पढ़ाते हो, पर दूसरों को क्या पड़ी है। कि वह सेंत में अपनी सिरपच्ची करें। इन रुपयों को तुम बचत समझते हो, यह सर्वथा अन्याय है। इसे चाहे अपनी सज्जनता का पुरस्कार समझो या उनके एहसान का मूल्य, इस धन के खर्च करने का उन्हें अधिकार है।
प्रेमशंकर ने सन्दिग्ध भाव से कहा– माया और तुम बिना रुपये दिलाये न मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा। तुम्हारी युक्ति में न्याय है, इसे मैं मानता हूँ, पर आत्मा सन्तुष्ट नहीं होती। मैं इस वक्त दिये देता हूँ पर इसे ऋण समझ कर सदैव अदा करने की चेष्टा करता रहूँगा।
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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।
इधर मायाशंकर की यूरोप-यात्रा पर ज्ञानशंकर राजी न हुए। उनके विचारों में अभी यात्रा से माया को यथेष्ट लाभ न पहुँच सकता था। उससे यह कहीं उत्तम था कि वह अपने इलाकों का दौरा करे। उसके बाद हिन्दुस्तान के मुख्य-मुख्य स्थानों को देखे, अतएव चैत के महीने में मायाशंकर गोरखपुर चला गया और दो महीने तक अपने इलाके की सैर करने के बाद लखनऊ जा पहुँचा। दो महीने तक वहां भी अपने गाँवों का दौरा करता रहा। प्रतिदिन जो कुछ देखता अपनी डायरी में लिख लेता। कृषकों की दशा का खूब अध्ययन किया। दोनों इलाकों के किसान उसके प्रजा-प्रेम, विनय और शिष्टता पर मुग्ध हो गये। उसने उनके दिलों में घर कर लिया। भय की जगह प्रेम का विकास हो गया। लोग उसे अपना उच्च हितैषी समझने लगे। उसके पास आ कर अपनी विपत्ति-कथा सुनाते। उसे उनकी वास्तविक दशा का ऐसा परिचय किसी अन्य रीति से न मिल सकता था। चारों तरफ तबाही छायी हुई थी। ऐसा विरला ही कोई घर था जिसमें धातु के बर्तन दिखाई पड़ते हों। कितने घरों में लोहे के तवे तक न थे। मिट्टी के बर्तनों को छोड़ कर झोंपड़े में और कुछ दिखायी न देता था। न ओढ़ना न बिछौना, यहाँ तक कि बहुत से घरों में खाटें तक न थीं और वह घर ही क्या थे। एक-एक दो-दो छोटी कोठरियाँ थीं। एक मनुष्यों के लिए, एक पशुओं के लिए। उसी एक कोठरी में खाना, सोना, बैठना– सब कुछ होता था। बस्तियाँ इतनी घनी थीं कि गाँव में खुली हुई जगह दिखायी ही नहीं देती थी। किसी के द्वार पर सहन नहीं, हवा और आकाश का शहरों की घनी बस्तियों में भी इतना अभाव न होगा। जो किसान बहुत सम्पन्न समझे जाते थे उनके बदन पर साबित कपड़े न थे, उन्हें भी एक जून चबेना पर ही काटना पड़ता था। वह भी ऋण के बोझ से दबे हुए थे। अच्छे जावनरों के रखने को आँखें तरस जाती थीं। जहाँ देखों छोटे-छोटे मरियल, दुर्बल बैल दिखायी देते और खेत में रेंगते और चरनियों पर औंघाते थे। कितने ही ऐसे गाँव थे जहाँ दूध तक न मयस्सर होता था। इस व्यापक दरिद्रता और दीनता को देख कर माया का कोमल हृदय तड़प जाता था। वह स्वभाव से ही भावुक था– बहुत नम्र उदार और सहृदय। शिक्षा और संगीत ने इन भावों को और भी चमका दिया था। प्रेमाश्रय में नित्य सेवा और प्रजा-हित की चर्चा रहती थी। माया का सरल हृदय उसी रंग में रंगा गया। वह इन दृश्यों से दुःखित हो कर प्रेमशंकर को बार-बार पत्र लिखता, अपनी अनुभूत घटनाओं का उल्लेख करता और इस कष्ट का निवारण करने का उपाय पूछता, किन्तु प्रेमशंकर या तो उनका कुछ उत्तर ही न देते या किसानों की मूर्खता, आलस्य आदि दुःस्वभावों की गाथा ले बैठते।
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