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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


किन्तु प्रेमाश्रम में वह शिथिलता न थी। यहाँ लोग पहले से ही सेवाधर्म के अनुगामी थे। अब उन्हें अपने कार्यक्षेत्र को और विस्तृत करने का सुअवसर मिला। ये लोग-नये-नये सुधार के प्रस्ताव सोचते, राजकीय प्रस्तावों के गुण-दोष की मीमांसा करते, सरकारी रिपोर्टों का निरीक्षण करते। प्रश्नों द्वारा अधिकारियों के अत्याचारों का पता देते, जहाँ कहीं न्याय का खून होते देखते, तुरंत सभा का ध्यान उसकी ओर आकर्षित करते और ये लोग केवल प्रश्नों से ही सन्तुष्ट न हो जाते थे, वरन् प्रस्तुत विषयों के मर्म तक पहुंचने की चेष्टा करते। विरोध के लिए विरोध न करते बल्कि शोध के लिए। इस सदुद्योग और कर्तव्यपरायणता ने शीघ्र ही राजसभा में इस मित्र-मडंल का सिक्का जमा किया। उनकी शंकाएँ, उनके प्रस्ताव, उनके प्रतिवाद आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। अधिकारी-वर्ग उनकी बातों को चुटकियों में न उड़ा सकते थे। यद्यपि डॉ. इर्फानअली इस मंडल के मुखपात्र थे, पर खुला हुआ भेद था कि प्रेमशंकर ही उसके कर्णधार हैं।

इस तरह दो साल बीत गये और यद्यपि मित्र-मंडल ने सभा को मुग्ध कर लिया था, पर अभी तक प्रेमशंकर को अपना वह प्रस्ताव सभा में प्रेश करने का साहस न हुआ जो बहुत दिनों से उनके मन में समाया हुआ था और जिसका उद्देश्य यह था कि जमींदारों से असामियों को बेदखल करने का अधिकार ले लिया जाये। वह स्वयं ज़मींदार घराने के थे, माया जिसे वह पुत्रवत् प्यार करते थे एक बड़ा ताल्लुकेदार हो गया था। ज्वालासिंह भी ज़मींदार थे। लाला प्रभाशंकर जिनकों वह पिता तुल्य समझते थे अपने अधिकारों से जौ भर की कमी भी न सह सकते थे, इन कारणों से वह प्रस्ताव को सभा के सम्मुख लाते हुए सकुचाते थे। यद्यपि सभा में भूपतियों की संख्या काफी थी और संख्या के देखते दबाव और भी ज्यादा था, पर प्रेमशंकर को सभा का इतना भय न था जितना अपने सम्बन्धियों का, इसके साथ ही अपने कर्त्तव्य-मार्ग से विचलित होते हुए उनकी आत्मा को दुःख होता था।

एक दिन वह इसी दुविधा में बैठे हुए थे कि मायाशंकर एक पत्र लिये हुए आया और बोला– देखिए, बाबू दीपक सिंह सभा में कितना घोर अनर्थ करने का प्रयत्न कर रहे हैं? वह सभा में इस आशय का प्रस्ताव लाने वाले हैं कि जमींदारों को असामियों में लगान वसूल करने के लिए ऐसे अधिकार मिलने चाहिए कि वह अपनी इच्छा से जिस असामी को चाहें बेदखल कर दें। उनके विचार में जमींदारों को यह अधिकार मिलने से रुपये वसूल करने में बड़ी सुविधा हो जायेगी। प्रेमशंकर ने उदासीन भाव से कहा– मैं यह पत्र देख चुका हूँ।

माया– पर आपने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया?

प्रेमशंकर ने आकाश की ओर ताकते हुए कहा– अभी तो नहीं दिया।

माया– आप समझते हैं कि सभा में प्रस्ताव स्वीकृत हो जायगा?

प्रेम– हाँ, सम्भव है।

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