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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


बन्दूकों की सलामी हुई, ब्राह्मण-समाज ने मंगलाचरण गान शुरू किया। सब लोगों ने खड़े होकर उसका अभिवादन किया। महाराज गुरुदत्त राय ने नीचे उतर कर उसे आलिंगन किया और उसे ला कर उसके सिंहासन पर बैठा दिया। मायाशंकर के मुख-मंडल पर इस समय हर्ष या उल्लास का कोई चिह्न न था। चिंता और विचार में डूबा हुआ नजर आता था। विवाह के समय मंडप के नीचे वर की जो दशा होती है वही दशा इस समय उसकी थी। उसके ऊपर कितना उत्तरदायित्व का भार रखा जाता था! आज से उसे कितने प्राणियों के पालन का, कल्याण का, रक्षा का कर्त्तव्य पालन करना पड़ेगा, सोते-जागते, उठते-बैठते न्याय और धर्म पर निगाह रखनी पड़ेगी, उसके कर्मचारी प्रजा पर जो-जो अत्याचार करेंगे उन सबका दोष उसके सिर पर होगा। दीनों की हाय और दुर्बलों के आँसुओं से उसे कितना सशंक रहना पड़ेगा। इन आन्तरिक भावों के अतिरिक्त ऐसी भद्र मंडली के सामने खड़े होने और हजारों नेत्रों के केन्द्र बनने का संकोच कुछ कम अशान्तिकारक न था। ज्ञानशंकर उठे और अपना प्रभावशाली अभिनंदन-पत्र पढ़ सुनाया। उसकी भाषा और भाव दोनों ही निर्दोष थे। डॉ. इर्फानअली ने हिन्दुस्तानी भाषा में उसका अनुवाद किया। तब महाराज साहब उसका उत्तर देने के लिए खड़े हुए। उन्होंने पहले ज्ञानशंकर और अन्य रईसों को धन्यवाद दिया, दो-चार मार्मिक वाक्यों में ज्ञानशंकर की कार्यपटुता और योग्यता की प्रशंसा की, राय कमलानंद और रानी गायत्री के सुयश और सुकीर्ति, प्रजारंजन और आत्मोत्सर्ग का उल्लेख किया। तब मायाशंकर को सम्बोधित करके उसके सौभाग्य पर हर्ष प्रकट किया। वक्तृता के शेष भाग में मायाशंकर को कर्तव्य और सुनीति का उपदेश दिया, अंत में आशा प्रकट की कि वह अपने देश, जाति और राज्य का भक्त और समाज का भूषण बनेगा।

तब मायाशंकर उत्तर देने के लिए उठा। उसके पैर काँप रहे थे और छाती में जोर से धड़कन हो रही थी। उसे भय होता था कि कहीं मैं घबरा कर बैठ न जाऊँ उसका दिल बैठा जाता था। ज्ञानशंकर ने पहले से ही उसे तैयार कर रखा था। उत्तर लिख कर याद करा दिया था, पर मायाशंकर के मन में कुछ और ही भाव थे। उसने अपने विचारों का जो क्रम स्थिर कर रखा था वह छिन्न-भिन्न हो गया था। एक क्षण तक वह हतबुद्धि बना अपने विचारों को सँभालता रहा, कैसे शुरू करूँ, क्या कहूँ? प्रेमशंकर सामने बैठे हुए उसके संकट पर अधीर हो रहे थे। सहसा मायाशंकर की निगाह उन पर पड़ गयी। इस निगाह ने उस पर वही काम किया जो रुकी हुई गाड़ी पर ललकार करती है। उसकी वाणी जाग्रत हो गयी। ईश्वर-प्रार्थना और उपस्थित महानुभावों को धन्यवाद देने के बाद बोला–

महाराज साहब, मैं उन अमूल्य उपदेशों के लिए अन्तःकरण से आपका अनुगृहीत हूँ जो आपने मेरे आने वाले कर्तव्यों के विषय में प्रदान किये हैं। और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यथासाध्य उन्हें कार्य में परिणत करूँगा। महोदय ने कहा है कि ताल्लुकेदार अपनी प्रजा का मित्र, गुरू और सहायक है। मैं बड़ी विनय के साथ निवेदन करूँगा कि वह इतना ही नहीं, कुछ और भी है, वह अपने प्रजा का सेवक भी है। यही उसके अस्तित्व का उद्देश्य और हेतु है अन्यथा संसार में उसकी कोई जरूरत न थी, उसके बिना समाज के संगठन में कोई बाधा न पड़ती। वह इसीलिए नहीं है कि प्रजा के पसीने की कमाई को विलास और विषय-भोग में उड़ाये, उनके टूटे-फूटे झोंपड़ों के सामने अपना ऊँचा महल खड़ा करे, उनकी नम्रता को अपने रत्नजटित वस्त्रों से अपमानित करे, उनकी संतोषमय सरलता को अपने पार्थिव वैभव से लज्जित करें। अपनी स्वाद-लिप्सा से उनकी क्षुधा-पीड़ा का उपहार करे। अपने स्वत्वों पर जान देता हो; पर अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ हो ऐसे निरंकुश प्राणियों से प्रजा की जितनी जल्द मुक्ति हो, उनका भार प्रजा के सिर दूर हो उतना ही अच्छा हो।

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