सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का शुभमूहूर्त आ पहुँचा है। बँगले के सामने एक विशाल, प्रशस्त मंडप तना हुआ है। उसकी सजावट के लिए लखनऊ के चतुर फर्राश बुलाये गये हैं। मंच गंगा-जमुनी कुर्सियों से जगमगा रहा है। चारों तरफ अनुपम शोभा है। गोरखपुर, लखनऊ और बनारस के मान्य पुरुष उपस्थित हैं। दीवानखाना, मकान, बँगला सब मेहमानों से भरा हुआ है। एक ओर फौजी बाजा है, दूसरी ओर बनारस के कुशल शहनाई वाले बैठे हैं। एक दूसरे शामियाने में नाटक खेलने की तैयारियाँ हो रही हैं। मित्र-भवन के छात्र अपना अभिनय कौशल दिखायेंगे। डॉक्टर प्रियनाथ का संगीत समाज अपने जौहर दिखायेगा। लाला प्रभाशंकर मेहमानों के आदर-सत्कार में प्रवृत्त हैं। दोनों रियासतों के देहातों से सैकड़ों नम्बरदार और मुखिया आये हुए हैं। लखनपुर ने भी अपने प्रतिनिधि भेजे हैं। ये सब ग्रामीण सज्जन प्रेमशंकर के मेहमान हैं। कादिर खाँ, दुखरन भगत, डपटसिंह सब आज केशारिया बाना धारण किये हुए हैं। वे आज अपने कारावास जीवन पर नकल करेंगे। सैयद ईजाद हुसेन ने एक जोरदार कसीदा लिखा है। इत्तहादी यतीमखाने के लड़के हरी-हरी झंडियाँ लिए मायाशंकर को स्वागत करने के लिए खड़े हैं। अँग्रेज मेहमानों का स्थान अलग है। वे भी एक-एक करके आते-जाते हैं। उनके सेवा-सत्कार का भार डॉ. इर्फानअली ने लिया है। उन लोगों के लिए प्रोफेसर रिचर्डसन कलकत्ते से बुलाये गये हैं जिनका गान विद्या में कोई सानी नहीं है। बाबू ज्ञानशंकर गवर्नर महोदय के स्वागत की तैयारियों में मग्न हैं।
सन्ध्या का समय था। बसन्त की शुभ्र, सुखदा समीर चल रही थी। लोग गर्वनर का स्वागत करने के लिए स्टेशन की तरफ चले। ज्ञानशंकर का ही हाथी सबसे आगे था। पीछे-पीछे बैंड बजता जा रहा था। स्टेशन पर पहले से ही फूलों का ढेर लगा दिया गया था। ज्यों ही गवर्नर की स्पेशल आयी और वह गाड़ी से उतरे, उन पर फूलों की वर्षा हुई। उन्हें एक सुसज्जित फिटन पर बिठाया गया। जुलूस चला। आगे-आगे हाथियों की माला थी। उनके पीछे राजपूतों की एक रेजीमेंट थी। फौज के बाद गवर्नर महोदय की फिटन थी जिस पर कारचोबी का छत्र लगा हुआ था। फिटन के पीछे शहर के रईसों की सवारियाँ थीं। उनके बाद पुलिस के सवारों की एक टोली थी। सबसे पीछे बाजे थे। यह जलूस नगर की मुख्य सड़कों पर होता हुआ, चिराग जलते-जलते ज्ञानशंकर के मकान पर आ पहुँचा। हिज एक्सेलेन्सी महाराज गुरुदत्त राय चौधरी फिटन से उतरे और मंच पर आकर अपनी निर्दिष्ट कुर्सी पर विराजमान हो गये। विद्युत के उज्जवल प्रकाश में उनकी विशाल प्रतिभासम्पन्न मूर्ति, गंभीर, तेजमय ऐसी मालूम होती थी मानो स्वर्ग से कोई दिव्य आत्मा आयी हो। केसरिया साफा और सादे श्वेत, वस्त्र उनकी प्रतिभा को और भी चमकाते थे। रईस लोग कुर्सियों पर बैठे। देहाती मेहमानों के लिए एक तरफ उज्ज्वल फर्श बिछा हुआ था। प्रेमशंकर ने उन्हें वहाँ पहले से ही बिठा रखा था। सब लोगों के यथास्थान पर बैठ जाने के बाद मायाशंकर रेशम और रत्नों से चमकता हुआ दीवानखाने से निकला और मित्र भवन के छात्रों के साथ पंडाल में आया।
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