सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
प्रेम– आपने देखा नहीं, माया ने दीपकसिंह के पत्र का कैसा युक्तिपूर्ण उत्तर दिया है?
इर्फान– जी हाँ, देखा। मैं तो आपसे पूछने आ रहा था। कि यह माया ने ही लिखा है या आपने कुछ मदद कि है?
प्रेम– मुझे तो खबर भी नहीं, उसी ने लिखा होगा।
इर्फान– तो उसको मुबारकबाद देनी चाहिए, बुलाऊँ!
प्रेम– जी नहीं! उसके इस जोश को दबाने की जरूरत है। ज्ञानशंकर यह लेख देखकर रोयेंगे। सारा इलजाम मेरे ऊपर आयेगा। कहेंगे कि आपने लड़के को बहका दिया, पर मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैंने उसे यह पत्र लिखने के लिए इशारा तक नहीं किया। इसी बदनामी के डर से मैंने नहीं लिखा।
इर्फान– आप यह इलजाम मेरे सिर पर रखा दीजिएगा। मैं बड़ी खुशी से इसे ले लूँगा।
प्रेम– कल उनका कोप-पत्र आ जायेगा। माया ने मेरे साथ अच्छा सलूक नहीं किया?
इर्फान– भाभी साहिबा का क्या ख्याल है?
प्रेम– उनकी कुछ न पूछिए। वह तो इस खुशी में दावत करना चाहती हैं। प्रेमशंकर का अनुमान अक्षरशः सत्य निकला। तीसरे दिन ज्ञानशंकर का कोप पत्र आ पहुँचा। आशय भी यही था– मुझे आपसे ऐसी आशा न थी। साम्यवाद के पाठ पढ़ा कर आपने सरल बालक पर घोर अत्याचार किया है। उसका अठारहवाँ वर्ष पूरा हो रहा है। उसे शीघ्र ही अपने इलाके का शासनधिकार मिलने वाला है। मैं इस महीने के अन्त तक इन्हीं तैयारियों के लिए आने वाला हूँ। हिज ऐक्स-लेन्सी गवर्नर महोदय स्वयं राज्यतिलक देने के लिए पधारने वाले हैं। उस मृदु संगीत को इस बेसुरे राग ने चौपट कर दिया। आपको अपने प्रजावाद का बीज किसी और खेत में बोना चाहिए था। आपने अपने शिक्षाधिकार का खेदजनक दुरूपयोग किया है। अब मुझ पर दया कर माया को मेरे पास भेज दीजिये। मैं नहीं चाहता कि अब वह एक क्षण भी वहाँ और रहे। अभिषेक तक मैं उसे अपने साथ रखूँगा। मुझे भय है कि वहाँ रह कर वह कोई और उपद्रव न कर बैठे...अस्तु।
सन्ध्या की गाड़ी से मायाशंकर ने लखनऊ को प्रस्थान किया।
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